INDIAN LITERATURE- Ancient Indian Literature in Hindi
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प्राचीन काल से ही वैदिक वाङ्ग्मय संपूर्ण विश्व को विविध उपदेश देता रहा है, इस कारण संस्कृत साहित्य में इसका अत्यधिक महत्व है। संस्कृत साहित्य में वैदिक साहित्य का सर्वोच्च स्थान है। वेदों के अध्ययन द्वारा सामाजिक, राजनैतिक, भौगोलिक,धार्मिक तथा सांस्कृतिक आदि सभी प्रकार के ज्ञान प्राप्त करना संभव हुआ है।

वेद 
संस्कृत साहित्य के सर्व प्राचीन ग्रन्थ वेद हैं, भारतीय संस्कृति प्राचीन संस्कृति है इसका प्रमाण भी वेद ग्रन्थ ही हैं।
अर्थ- वेद शब्द विद् धातु तथा घञ् प्रत्यय से मिलकर बना है। वेद शब्द का अर्थ 'ज्ञान' है।
वेद शब्द का निर्वचन है-विद्यते ज्ञायतेऽनेनेति वेद: अर्थात् जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाए वही वेद हैं।

विभिन्न विद्वानों ने वेद से प्राप्त ज्ञान की परिभाषा भिन्न-भिन्न बताई है-
  • जिससे इष्ट की प्राप्ति तथा अनिष्ट के त्याग के अलौकिक उपाय को जाना जाता है, वे वेद हैं।
  • वेद द्वारा धर्मादि पुरुषार्थ जाने जाते हैं या प्राप्त किए जाते हैं।
  • जिसके द्वारा सभी सत्य ज्ञान की अनुभूति होती है वह वेद हैं।
  • वेद मनुष्य को करणीय तथा अकरणीय कर्मों का ज्ञान कराने वाला अक्षय कोष हैं।
मीमांसकों द्वारा प्रत्यक्ष अर्थात् सामने स्थित वस्तु और अनुमान से भी जिसका उपाय तथा ज्ञान नहीं हो सकता, उसका ज्ञान केवल वेद द्वारा ही संभव है।
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते। 
एतं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता।।

वेद का द्वितीय नाम श्रुति है, क्योंकि गुरु के द्वारा उच्चारित वाक्यों या कथनों को शिष्य सुनकर ही उन कथनों को स्मरण(याद) रखते थे, इस कारण वेद को श्रुति भी कहा जाता है।

स्वरूप- वेद 'अपौरुषय' हैं अर्थात् वेद की रचना किसी पुरुष या मानव विशेष द्वारा नहीं किया गया है। आस्तिक दर्शन वेदों को ईश्वर की वाणी के रूप में या अपौरुषय शब्द राशि के रूप में मानते हैं अर्थात् वेद की रचना किसी पुरुष विशेष द्वारा नहीं मानते हैं। वेद आगमन प्रमाण हैं, समस्त ज्ञान का स्त्रोत हैं। वेद के अध्ययन से लोग जीवन दर्शन को संचालित कर सकते हैं।


आचार्य मनु के द्वारा वेद धर्म के मूल हैं-'वेदोऽखिलो धर्ममूलम्' अर्थात् धर्म का मूल ग्रन्थ वेद ग्रन्थ हैं।
मनुस्मृति में आचार्य मनु ने समस्त ज्ञान का कोष(भंडार) वेद को कहा है, अर्थात सर्वज्ञानमयो हि स:।।

प्राचीन परम्परा में वेद के अन्तर्गत मंत्र और ब्राह्मण दोनों भाग सम्मिलित हैं।
'मंत्रब्रह्मणयोर्वेदनामधेयम्'
मंत्र का अर्थ है उच्चारण द्वारा देवता की स्तुति तथा यज्ञ-अनुष्ठान करना और ब्राह्मण का अर्थ है यज्ञ के कर्मकाण्ड एवं उसके प्रयोजनों की व्याख्या करना।
प्राचीन परम्परा में वेद के ऋत्विक् थे। वैदिक यज्ञ में जो व्यक्ति पुरोहित(पण्डित,विद्वान) के रूप में अनुष्ठान कराते थे, उन्हें ऋत्विक् कहा जाता था।

वैदिक वाङ्ग्मय को चार भागों में बाँटा गया है- 1) वेद संहिता, 2) ब्राह्मण ग्रन्थ, 3) आरण्यक ग्रन्थ, 4) उपनिषद्।
विभाजन- कृष्ण द्वैपायन(व्यास) ने वेदों को चार भागों में बाँटा हैं इसलिए उन्हें वेदव्यास के नाम से भी जाना जाता है।
चार वेद हैं-
1) ऋग्वेद संहिता।
2) यजुर्वेद संहिता। 
3) सामवेद संहिता।
4) अथर्ववेद संहिता।
प्रथम तीन वेद(ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद) को वेदत्रयी कहा जाता है।

रचनाकाल:- वेदों के रचनाकाल के विषय में प्रत्येक विद्वानों का मत भिन्न-भिन्न है। मैक्समूलर द्वारा वैदिक साहित्य का प्रारम्भ 1200 ई.पू. मानते हैं। ए. बेबर ने वेदों का समय 1200 से 1500 ई.पू. बताया है। इस प्रकार कई और विद्वानों ने अपने-अपने मत बताए हैं।

ऋग्वेद
यह प्राचीनतम तथा प्रथम वेद है। छंदोबद्ध मन्त्रों को ऋक् कहते है तथा ऋग्वेद में विभिन्न देवताओं के स्तुति परक छंदोबद्ध मन्त्रों का संकलन है। ऋग्वेद ऋत्विक् ‘होता’ कहलाता है।
शाखाएं- पतञ्जलि आचार्य ने अपने महाभाष्य में ऋग्वेद की 21 शाखाओं का उल्लेख किया है। किन्तु आचार्य चरणव्यूह के अनुसार इनमें  केवल 5 शाखाएं ही मुख्य हैं।
पांच शाखाएं हैं- शाकल, बाष्कल, आश्वलायन,शांखायन तथा माण्डूकायन।
विभाजन- ऋग्वेद का विभाजन दो प्रकार से किया गया है - मण्डल-क्रम तथा अष्टक-क्रम।
मण्डल-क्रम- 10 मण्डल हैं, 85 अनुवाक हैं, 1028 सूक्त हैं तथा लगभग 10580 मंत्र हैं।
अष्टक-क्रम- 8 अष्टक हैं। प्रत्येक अष्टक में 8 अध्याय हैं, इस प्रकार 64 अध्याय हैं तथा 2024 वर्ग हैं।
ऋग्वेद का अपर नाम दशतयी श्रुतिः है। ऋग्वेद का सर्वप्रथम सूक्त अग्नि सूक्त है तथा ऋग्वेद में इन्द्र देवता के सर्वाधिक मंत्र प्राप्त होते हैं।
ऋग्वेद में अनेक सूक्त हैं जो इस समय की समाजिक, धार्मिक, आर्थिक व राजनैतिक स्थिति को प्रकाशित करते हैं। ऋग्वेद में दार्शनिक विषयों की भी झलक मिलती है। जैसे हिरण्यगर्भ सूक्त, नासदीय सूक्त, पुरुष सूक्त आदि ये सभी दार्शनिक सूक्त हैं।

यजुर्वेद

यह दूसरा वेद है, जो कर्म (यज्ञ) का प्रतिपादन करता है। यज्+उसि प्रत्यय से 'यजुष्' शब्द बना है। यजुष् का अर्थ है यज्ञ के साधक मंत्र। यजुर्वेद कर्मकाण्ड का वेद है। यजुर्वेद का ऋत्विक् 'अध्वर्यु' है। पतञ्जलि के महाभाष्यानुसार यजुर्वेद में 101 या 102 शाखाएं थी। यजुर्वेद के दो सम्प्रदाय हैं- ब्रह्म सम्प्रदाय तथा आदित्य सम्प्रदाय। यजुर्वेद दो भाग में विभक्त है-
कृष्ण यजुर्वेद- यह प्रथम है। इसे ब्रह्मवेद भी कहा जाता है, क्योंकि यह ब्रह्म सम्प्रदाय से सम्बन्धित है तथा इसका प्रवचक वैशम्पायन को माना जाता है। इसकी चार शाखाएँ तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक तथा कपिष्ठल उपलब्ध हैं।
शुक्ल यजुर्वेद- इसे वाजसनेयि संहिता कहते है। इसकी दो शाखाएँ उपलब्ध हैं- माध्यन्दिन एवं काण्व। वाजसनेयि संहिता आदित्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित है तथा इसके ऋषि याज्ञवल्क्य हैं।

सामवेद
साम शब्द में 'सा' का अर्थ है ऋचा तथा 'अम' का अर्थ है गान। सामवेद का अर्थ है सामन् अर्थात् गान का वेद। सामवेद का प्रधान विषय उपासना है, इसके अधिकांश मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं। सामवेद का देवता 'सूर्य' है एवं ऋत्विक् 'उद्गाता' हैं। महाभाष्य के अनुसार 1000 शाखाएं हैं। परंतु वर्तमान में 3 शाखा उपलब्ध हैं।
शाखाएं- कौथुमीय, राणायणीय तथा जैमिनीय।
सामवेद की कुल मंत्र संख्या 1875 हैं। सामवेद में मन्त्रों के आरोह-अवरोह व उचित मात्राओं से युक्त सुस्वर उच्चारण का वर्णन है।
इसमें सात स्वर (स, रे, ग, म, प, ध तथा नि) का वर्णन है। सामवेद में तीन ग्राम हैं- मन्द, मध्य तथा तीव्र। सामगान के तीन प्रकार- ग्रामगान(गांव), आरण्यगान(वन), ऊहगान तथा उह्य गान(यह दोनों गान धार्मिक कार्यों या अवसरों से सम्बन्धित हैं)।
सामविकार 6 हैं- विकार, विश्लेषण, विकर्षण, अभ्यास, विराम, तथा स्तोभ।

अथर्ववेद
यह तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद) का केवल सार रूप है। इस वेद का  ऋत्विज 'ब्रह्मा' को माना गया है, इसलिए इसे ब्रह्मवेद भी कहते हैं। 'अथर्वन्' ऋषि के नाम पर इस वेद का नाम अथर्ववेद पड़ा।
शाखाएं- आचार्य पतंजलि के महाभाष्य में इसकी 9 शाखाओं का उल्लेख प्राप्त होता है- पैप्पलाद, तौद, मौद, शौनकीय, जाजल, जलद, ब्रह्मवेद, देवदर्श तथा चारणवैद्य। परंतु वर्तमान में केवल दो शाखाएं पैप्पलाद तथा शौनकीय ही उपलब्ध हैं।
अथर्ववेद में 50 से अधिक सूक्त गद्यात्मक रूप में वर्णित हैं। इसमें विशेष रूप से इहलोकिक विषयों का वर्णन है।
साहित्य के रूप में सभी वेद संहिताएं महत्वपूर्ण हैं, आवश्यकता अनुसार वेद का साहित्य बढ़ता गया और ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् साहित्य क्रमशः विकसित हुए।

ब्राह्मण ग्रन्थ
वेद ग्रन्थों के बाद ब्राह्मण ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। ब्राह्मण शब्द 'बहू वर्धने' धातु एवं 'अण्' प्रत्यय तथा ‘ब्रह्मन्’ शब्द से बना है(ब्रह्मन् शब्द + बहू धातु + अण् प्रत्यय=ब्राह्मण)। ब्राह्मण शब्द के तीन अर्थ हैं-
(1)ब्रह्मन् शब्द का अर्थ है मन्त्र- ब्रह्म वै मंत्रः। ब्राह्मण ग्रन्थ में मन्त्रों की व्याख्या हैं इस कारण ये ब्राह्मण हैं।
(2)ब्रह्मन् का अर्थ हैं यज्ञ- ब्रह्म यज्ञः। यज्ञ की व्याख्या, विधि-विधान का वर्णन होने के कारण ये ब्राह्मण ग्रन्थ कहलाये।
(3)ब्रह्मन् का अर्थ है रहस्य। वैदिक रहस्यों को बताने के कारण इन्हें ब्राह्मण कहा गया।
ब्राह्मण ग्रन्थों का मुख्य विषय यज्ञों का प्रतिपादन तथा उनकी विधियों की व्याख्या करना है।
मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्।
प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण ग्रन्थ इस प्रकार हैं-
ब्राह्मण ग्रन्थों में कथाओं, आख्यानों तथा उपाख्यानों के माध्यम से विभिन्न याज्ञिक विधियों का वर्णन किया गया है।

आरण्यक ग्रन्थ
आरण्यक ग्रन्थों के अन्तर्गत यज्ञ प्रकिया से आध्यात्मिक तत्वों का वर्णन है। ये ग्रन्थ कर्मकाण्ड से ज्ञान-कांड के चिन्तन को बताते हैं। अत: ये ब्राह्मण ग्रन्थ के पूरक तथा उपनिषद् के प्रारंभिक भाग हैं। आरण्यक में, ब्राह्मण ग्रन्थ में वर्णित कठिन कर्मकाण्ड वाले यज्ञों की अपेक्षा यज्ञ की सरल विधि-विधानों का वर्णन है।
आरण्यक अरण्य शब्द से बना है। अरण्य वन (जंगल) को कहा जाता है। अतः जिन ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन अथवा आत्मचिंतन अरण्य के शांत तथा निर्मल वातावरण में होता था, उन सभी ग्रन्थों को आरण्यक कहा जाता था।
अरण्याध्ययनादेतादारण्यकमितीर्यते। (तैत्तिरीयारण्यक श्लोक-6)

प्रत्येक वेद के अपने-अपने आरण्यक ग्रन्थ हैं जो इस प्रकार है-
इस प्रकार आरण्यक ग्रन्थ अरण्य में निवास करने वाले वानप्रस्थ आश्रम के लोगों के लिए उपादेय हैं तथा उपनिषद् सन्यासी के लिए उपयोगी हैं।

उपनिषद्
उपनिषद् शब्द 'उप' एवं 'नि' उपसर्ग तथा 'सद्' धातु से 'क्विप्' प्रत्यय लग कर बना है(उप+नि+सद्+क्विप्=उपनिषद्)।
उप का अर्थ है- समीप या पास में, तथा सद् का अर्थ है- बैठना। इस प्रकार उपनिषद् का अर्थ है- गुरु के समीप बैठना। अतः उपनिषद् का मुख्य अर्थ है, ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से गुरु के पास जाना या समीप बैठना।
शंकराचार्य ने उपनिषद् को ब्रह्म-विद्या अथवा आध्यात्म-विद्या  कहा है। वैदिक वाङ्ग्मय में उपनिषद् का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उपनिषद् को रहस्यविद्या भी कहा जाता हैं, क्योंकि प्राचीन काल में गुरु एवं ऋषियों के द्वारा विद्या या ब्रह्म- विद्या का ज्ञान एकांत स्थान में किया जाता था।

वेद का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषद् को वेदांत भी कहा जाता है। अतः वेदों में वर्णित ज्ञान की अंतिम सीमा उपनिषदों में ही है।
उपनिषद् का मुख्य विषय ब्रह्म-विद्या है, तथा इसके साथ ही इसमें आत्मा, सृष्टि, जीव, प्राण, माया, विद्या, अविद्या, पुनर्जन्म, मोक्ष, कर्म तथा नैतिकता आदि का भी वर्णन प्राप्त होता है।
मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार उपनिषदों की संख्या 108 मानी जाती है। परंतु इनमें से केवल 14 उपनिषद् ही प्रामाणिक रूप से उपलब्ध हैं तथा जिनमें से 10 उपनिषद् ही महत्वपूर्ण हैं। जिन उपनिषदों पर शंकराचार्य ने भाष्य लिखा है, वह दस उपनिषद् इस प्रकार हैं-
ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य-तित्तिरि:।
ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा।।
प्रत्येक वेद के अपने-अपने उपनिषद् है जो की इस प्रकार है-
इस प्रकार वैदिक वाङ्ग्मय (वेद-ब्राह्मण-आरण्यक-उपनिषद्) का संस्कृत साहित्य में विशेष महत्त्व है। वैदिक वाङ्ग्मय के बिना संस्कृत साहित्य अधूरा है। संस्कृत साहित्य का प्रारम्भ वैदिक साहित्य से हुआ था। प्राचीन वैदिक साहित्य ने ही लौकिक साहित्य को जन्म दिया है। कालान्तर में वेद, ब्राह्मणादि की रचना हुई । चारों वेदों के अपने अलग-अलग ब्राह्मण, आरण्यक आदि ग्रन्थ होने के कारण वेद ही सर्वोपरि ग्रन्थ हैं, परन्तु ब्राह्मण आदि ग्रन्थों का भी विशेष महत्व है। जहां ब्राह्मण कर्मकाण्ड पर आधारित हैं तो वहीं आरण्यक ग्रन्थों में विशेष रूप से ज्ञान कांड का वर्णन है तथा अंतिम उपनिषद् में ब्रह्मविद्या का भंडार है। प्रत्येक ग्रन्थ का अपना विशेष स्थान है। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेद का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है, तो वहीं संन्यास आश्रम में उपनिषद् के ब्रह्मविद्या का ज्ञान होना आवश्यक है। इस प्रकार मनुष्य की संचालित जीवन व्यवस्था में संस्कृत साहित्य के वैदिक वाङ्ग्मय का महत्वपूर्ण स्थान है।
भारतीय समाज प्राचीन काल से ही सुव्यवस्थित, सुनियोजित एवं सुगठित सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से संतुलित रहा है। संस्थाओं का विकसित स्वरूप उस समय के भारतीय समाज को शक्तिशाली तथा योजनाबद्ध बना रहा था। उन सामाजिक संस्थाओं में से एक भारतीय वर्ण-व्यवस्था भी थी।

सामाजिक संरचना को सुदृढ़ व स्थिर करने के लिए अनेक व्यवस्थाएँ बनाई जाती है, जिससे समाज के प्रत्येक प्राणी की आवश्यकताएँ पूर्ण हो और वे एक-दूसरे के विकास में सहयोग दें तथा समाज में शांति बनी रहे। विश्व की प्रायः सभी संस्कृतियों का विभाजन विभिन्न वर्गों में देखने को मिलता है। भारतीय संस्कृति में भी इस प्रकार का विभाजन वर्ण व्यवस्था व आश्रम व्यवस्था के रूप में प्राप्त होता है।
आश्रम व्यवस्था(ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) में व्यक्तित्व स्तर पर मनुष्य को जीवन अर्थात समग्र आयु का विभाजन कर उसके कर्तव्यों का निरूपण किया गया है तथा वर्ण-व्यवस्था मनुष्य के सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्धारण कर विभिन्न वृत्तियों(कामों) द्वारा समाज को संगठित रखने व मनुष्यों के पारस्परिक हितों में तारतम्य(समन्वय) स्थापित करने का प्रयास किया गया है।

वर्ण शब्द का अर्थ- आचार्य यास्क ने अपने ग्रंथ ‘निरूक्त’ में वर्ण-व्यवस्था के वर्ण शब्द की उत्पति को 'वृञ्' धातु से निष्पन्न माना है-'वर्णो वृणोतेः' अर्थात् चुनाव करना। ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग 'रंग' अर्थ में हुआ है, जिसका अभिप्राय ‘जनसमूह’ से माना गया है। संस्कृत-हिन्दी कोष के विद्वान आप्टे आचार्य ने अपने शब्दकोष में वर्ण शब्द का अर्थ- रंग, रूप, सौन्दर्य, जाति, श्रेणी, वंश तथा मनुष्य बताया है। अतः ये सभी अर्थ उस समय की सामाजिक वर्ण-व्यवस्था के विभाजन के अनुसार बताए गए। 

वर्ण शब्द के तीन अर्थ प्राप्त होते है-
  • संज्ञार्थक- रंग, सौन्दर्य, अजर, प्रशंसा आदि। 
  • क्रियार्थक- रंगता अथवा वर्णन करना।
  • समाज से संबंधित अर्थ- (1) आर्य या दास नीति विशेष।  (2) ब्राह्मण,  क्षत्रिय आदि चार वर्ण।
समाज व्यवस्था के संदर्भ में वर्ण शब्द से अभिप्राय ब्राह्मणादि चार वर्णों से है।
भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था 
प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान रही है। मनुष्य अपने जीवन में कर्म व श्रम के द्वारा ही उन्नति करता आया है। भारतीय समाज में कर्म को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है।  रामायण, महाभारत, पौराणिक कथा आदि में कर्म से सम्बन्धित विषय प्राप्त होते हैं। जिनसे यह पता चलता है कि भारतीय संस्कृति में धर्म, कर्म तथा श्रम सर्वोपरि हैंं।

भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध ग्रन्थ भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा कहा गया है- कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
अर्थात् मनुष्य का अधिकार केवल कर्म पर है, कर्म के फल पर नहीं। इस कारण मनुष्य को केवल कर्म करते रहना चाहिए, कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। सभी मनुष्यों को निष्काम कर्म करना चाहिए। निष्काम कर्म का अर्थ है कि केवल कर्म अर्थात् अपना कर्त्तव्य करना चाहिए ना कि कर्म के फल की चिंता करनी चाहिए, यदि जीव उचित तथा सभी के हित का कार्य करे तो अवश्य ही उचित कर्म का फल लाभकारी ही होगा परन्तु यदि मनुष्य कर्म करने से पहले ही कर्म के फल की चिंता करने लगे तो वह सम्यक रूप से कर्म नहीं कर पाएगा। इस कारण मनुष्य को कर्म के फल की चिंता का त्याग करके निष्काम कर्म ही करना चाहिए। 

अतः भारतीय शास्रों में सभी परिस्थितियों में मनुष्य के लिए कर्म का विधान किया गया है। इसी कर्म सिद्धांत को स्वीकार करते हुए धर्मशास्रों में आश्रम व्यवस्था का विधान विद्वानों द्वारा किया गया। 

आश्रम- आश्रम शब्द 'आ' उपसर्ग पूर्वक् 'श्रम्' धातु से बना है। जिसका अर्थ है- विशिष्ट परिश्रम करना।
इसकी व्युत्पति है- "आश्रमयन्ति अस्मिन् इति आश्रमः।" अर्थात् जीवन का एक ऐसा स्तर, जिसमें व्यक्ति भरपूर श्रम करता है।

आश्रम व्यवस्था का उद्देश्य-
भारतीय समाज के संगठन, लोक व्यवस्था के कल्याणार्थ व सञ्चालन  के लिए भारतीय विद्वानों ने आश्रम व्यवस्था को स्वीकार किया। भारतीय विद्वानों ने मानव जीवन के चार प्रयोजन (पुरुषार्थ) धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का निर्धारण किया। मनुष्य को इन चारों प्रयोजन की सिद्धि के लिए विशिष्ट श्रम की आवश्यकता थी। मनुष्य श्रम पूर्वक जीवन व्यतीत करे और समस्त कर्त्तव्यों का पालन करे, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आश्रम व्यवस्था का निर्माण किया गया।

महाभारत में आश्रम व्यवस्था को चार डण्डों वाली ऐसी सीढ़ी के रूप में बताया गया है, जो व्यक्ति को क्रमशः ब्रह्म(परमात्मा) के ओर ले जाती है। आश्रम व्यवस्था में मनुष्य चारों पुरुषार्थों(धर्म,अर्थ,काम तथा मोक्ष) की सिद्धि के लिए विशिष्ट श्रम, साधना एवं तपस्या करता है और एक अवस्था(पुरुषार्थ) को प्राप्त कर लेने या पूर्ण करने के बाद दूसरी अवस्था की पूर्ति के लिए आगे की ओर बढ़ जाता है।

ये चारों आश्रम हैं- (1)ब्रह्मचर्याश्रम, (2)गृहस्थाश्रम, (3)वानप्रस्थाश्रम तथा (4)संन्यासाश्रम।
आश्रम व्यवस्था
मनुष्य इस लौकिक जीवन के प्रति जागरुक होते हुए परलौकिक (दूसरे लोक) जीवन के प्रति भी अत्यधिक उत्साहित रहा है। वह अपने व्यावहारिक जीवन की अभिव्यक्ति धर्म की भावना और व्यव्हार की नैतिकता से करता रहा है। इस प्रकार स्वर्ग प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले कर्म में आस्था पुरुषार्थ के अंतर्गत आता है। मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन के प्रति पारंपरिक रूप से आस्था का भाव इसके बिना असंभव है।


पुरुषार्थ शब्द 'पुरुष' और 'अर्थ' से मिलकर बना है(पुरुष+अर्थ= पुरुषार्थ)।


पुरुष का अर्थ है देहधारी मनुष्य और अर्थ शब्द का अभिप्राय साध्य, लक्ष्य तथा प्रयोजन से है। पुरुषार्थ मनुष्य के जीवन का वह परम लक्ष्य या प्रयोजन है, जिसकी प्राप्ति के लिए वह सदैव प्रयत्नशील तथा क्रियाशील रहता है। पुरुषार्थ मनुष्य जीवन के लक्ष्यों तथा उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ हैं जिनको पुरुषार्थ चतुष्ट्य या चतुर्वर्ग भी कहा गया हैं। इसमें भौतिक(सांसारिक), धार्मिक(नैतिक) तथा आध्यात्मिक(ईश्वरीय) तत्वों आदि का सन्निवेशन(मिश्रण) है।
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष
पुरुषार्थ चतुष्ट्य


संस्कृति-
संस्कृत भाषा में सम् उपसर्ग, पूर्वक कृ धातु में क्तिन् प्रत्यय के योग से संस्कृति शब्द निष्पन्न होता है।

सम् + कृ धातु + क्तिन् प्रत्यय = संस्कृति।

इस व्युत्पत्ति की दृष्टि से संस्कृति शब्द परिष्कृत कार्य अथवा उत्तम स्थिति का बोध कराता है। वस्तुतः यह शब्द मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों, व्यवहारों और उनके परिष्कार का द्योतक है। व्यक्ति के मन, शरीर तथा आत्मा से सम्बन्ध नैसर्गिक शक्तियाँ संस्कृति से ही परिवर्धित और परिष्कृत होती हैं। मन और आत्मा की तृप्ति के लिए मनुष्य जो विकास या उन्नति करता है, वह समग्र रूप से संस्कृति के अंतर्गत आता है। सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की अभिलाषा एवं संरक्षण ही संस्कृति का प्राण तत्व है। अतः मानसिक क्षेत्र में मानव के प्रत्येक सम्यक् कृति (उत्तम  कार्य) संस्कृति के अंतर्गत आते हैं। इसमें मुख्यतः सभी कलाओं, ज्ञान-विज्ञान, धर्म, दर्शन तथा विभिन्न सामाजिक प्रथाओं को ग्रहण किया जाता है।
आत्मा- आत्मा, परमात्मा से अपृथक उसी के रूप जैसी एक विभूति या तत्व है जो कि चेतन स्वरूप है।
गीता में इसे परा (अध्यात्म) प्रकृति कहा गया है जो कि सभी चेतन प्राणियों के भीतर जीवरूप में स्थित है।














































मैं नारी हूं

व्यक्तिगत हूं में सबकी प्यारी
क्यों न समझे मां बाप हमारी?
मेरे अस्तित्व को छिपा कर 
क्यों मुझे बेटो से नीचे दिखा कर करते हैं उसका गुणगान जो हैं केवल मेरे ही समान?
मेरा जन्म मानते हैं भूतकाल का कर्ज़ 
मुझे विदा करना समझते हैं भविष्य का फ़र्ज़।
मेरी हर चाहत को मार 
पहना दिया मुझे जिम्मेदारियों का हार।
कन्या से बन गई मैं पत्नी धन
क्यों न समझा मेरा हाल एक भी क्षण?
                 अपना बचपना छिपाते हुए
                 खुद से खुदको हिम्मत देते 
                 अपनी किस्मत को कोसती हुई
                 अकेले रसोईघर में रोती हुई 
क्यों मैंने सौंप दिया उसे खुद को जिसने मुझे नहीं मेरी पवित्रता को देखा ।
मैं अकेलेपन में डूबती रही
अपनों को खोजती रही
हूं मैं पवित्र यह बताती रही 
क्यों स्वयं को और झुकाती रही?
किसी की बेटी हूं मैं 
किसी की पत्नी हूं मैं
अब मां हूं मैं....
             यह एक तरफा रिश्ता
             मैं ही निभाती रही 
             मैं दलदल जैसे रिश्तों में            
             ओर फसती रही...
क्यों किसी को मेरी यह दुर्गति न दिखी ?
क्यों मैं यह सब अकेले सहती रही?                                                 
नहीं किसी का पुरुषत्व जागा
केवल में हूं गलत यह मुझ पर कलंक लगा।
मैंने तो उठा लिया सबका बीड़ा 
पर नहीं दिखी किसी को मेरी पीड़ा।
न देखा मैंने अपना बचपन 
न देखा मैंने अपना यौवन
हूं मैं अबला यह दिखाया
काटो की सेज पर सजाया।
हर युग में मुझको तरसाया 
कभी मुझे गलत तो कभी मुझे बेचारी बताया।
पर......
मैं रोशनी की किरण हूं
मैं गंगा की बहती पवित्र तरंग हूं
मैं घर की आंगन की तुलसी हूं
मैं निडर, अभिमानी, खुशियों की पूंजी हूं।
मैं देश की बेटी कल्पना चावला हूं
मैं शिव की अर्धांगी हूं
मैं श्री कृष्ण की यशोदा मां
मैं अग्नि परीक्षा में सफल सीता हूं
मैं झासी की रानी हूं
मैं धरती की जननी हूं
मैं नारी हूं..
मैं नारी हूं....

 .......जूही झा
प्रयोजनमनुद्यिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते।
अर्थात मन्दबुद्धि व्यक्ति भी निष्प्रयोजन किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। मनुष्य जो भी कार्य करता हैं, उसमें उसका कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता हैं।
काव्य प्रयोजन का अर्थ हैं काव्य का उद्येश्य अथवा रचना की आंतरिक प्रेरणा शक्ति। संस्कृत काव्य जगत में ग्रन्थ के अध्यन के लिए अनुबंध चतुष्टय का निर्धारण किया गया।
अनुबंध चतुष्टय से तात्पर्य हैं कि ग्रन्थ का विषय, प्रयोजन, सम्बन्ध और अधिकारी। इस अनुबंध चतुष्टय का सर्वाधिक महत्वपुर्ण क्रम हैं - प्रयोजन। काव्य प्रयोजन का अर्थ हैं काव्य रचना से प्राप्त फल जैसे आनंद, यश, धन, व्यव्हार आदि। भारतीय आचार्यों ने काव्य को सोद्देश्य माना हैं अतः भरत मुनि से विश्वनाथ तक काव्य के प्रयोजन पर विचार करने की लंबी परंपरा रही हैं। विश्वनाथ से पूर्व कवियों द्वारा रचित काव्य प्रयोजन संक्षिप्त में इस प्रकार हैं-



1) आचार्य भरत के नाट्यशास्र के अध्यायों में नाटक के विभिन्न फलों का वर्णन किया है जैसे - क्रीड़ा, शम, हास्य, युद्ध, वध, उत्साह, धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की साधना आदि।
2) भामह - भामह ने भी काव्य के प्रयोजन का विवेचन किया हैं - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, कीर्ति तथा प्रीती।
3) दण्डी ने जनकल्याण को काव्य का फल माना हैं।
4) वामन ने काव्य के दृष्ट (प्रीति) तथा अदृष्ट (कीर्ति) के रुप में दो प्रयोजन स्वीकार किया हैं।
5) मम्मट - मम्मट ने अपने काव्य प्रकाश में छह काव्य प्रयोजन स्वीकार किए हैं। यश, अर्थ, व्यवहारज्ञान, शिवेतरक्षति(अमंगल का नाश), सद्य:परिनिर्वृति(परमानन्द), कान्तासाम्मित उपदेश।

विश्वनाथ का काव्य प्रयोजन 

चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि। 
काव्यदेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते।।


विश्वनाथ ने न केवल वेदशास्रादि दुर्बोध ग्रंथो के अध्यन्न में असमर्थ मनबुद्धि लोगो की काव्य से चतुर्वर्ग प्राप्ति का सन्देश दिया हैं अपितु वेदादि शास्रो को समझने में समर्थ परिणत बुद्धि वाले लोगो को भी वेदादि की अपेक्षा काव्य से चतुर्वर्ग प्राप्ति की सलाह दी हैं। 
आचार्य विश्वनाथ ने प्रतिपादित किया है कि काव्य से चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति संभव हैं। 

काव्य से धर्म प्राप्ति

वेदादि स्रोत कृत्य कर्मो जैसे सत्या, दया, अहिंसा आदि का पालन तथा अकृत्य कर्मो जैसे कपट, परादर, स्वार्थ आदि का परित्याग करना ही धर्म हैं। वेद, पुराण, शास्रों में धर्म का ज्ञान होता हैं। विश्वनाथ ने भी आचार्य मम्मट के समान कहा - काव्य से उपदेश मिलता हैं कि राम के समान कृत्य कर्मो का पालन करना चाहिए तथा रावन के समान अकृत्य कर्म का परित्याग करना चाहिए। अतः शास्र के समान काव्य से भी धर्म की प्राप्ति संभव है। 
काव्य से धर्म प्राप्ति भगवान नारायण के चरण कमलों की स्तुति द्वारा भी संभव हैं। देवताओं की स्तुति में स्रोत काव्य की रचना द्वारा धर्म को प्राप्त करते हैं।
काव्य से धर्म प्राप्ति संभव है इसका विश्वनाथ ने एक और तर्क दिया हैं - एक शब्द भी सम्यक ज्ञान पूर्वक सुप्रयुक्त किया जाए तो वह इह लोक में तथा स्वर्ग में कामनाओं को पूर्ण करता हैं। 


काव्य से अर्थ प्राप्ति

अर्थ की प्राप्ति काव्य से प्रत्यक्ष सिद्ध हैं।प्राचीन काल में श्रेष्ठ काव्यों की रचना पर कवियों को राजाओ से पुरस्कार मिलते थें। आधुनिक कल में भी काव्य से अर्थ प्राप्ति संभव हैं। 
आचार्य मम्मट ने कहा है - धावक को श्रीहर्ष से धन प्राप्त हुआ। 

काव्य से काम की प्राप्ति

विश्वनाथ ने कहा है काम की प्राप्ति अर्थ अर्थात धन के द्वारा हो सकती हैं। जब काव्य से धन की उपलब्धि हो गई तो उससे कामनाओं की पूर्ति अनायास हो जाती हैं।
  

काव्य से मोक्ष प्राप्ति 

काव्य से मोक्ष प्राप्ति संभव हैं। काव्य से धर्मफल के अनुसंधान से मोक्ष की प्राप्ति भी काव्य से होती हैं।
धर्म, अर्थ, काम में अनासक्ति हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। मोक्षप्राप्ति के लिए उपयोगी उपनिषद आदि ग्रंथो के अध्ययन से कल्याण तथा योग्यता प्राप्त करने के कारण काव्य मोक्ष प्राप्ति का भी साधन बन जाता हैं। यद्यपि काव्य से साक्षात् मोक्ष प्राप्ति नहीं होती। अतः मोक्ष प्राप्ति में काव्य उपयोगी हैं।

इस प्रकार विश्वनाथ ने चतुर्वर्ग प्राप्ति को काव्य का प्रयोजन निर्धारित किया। उसके साथ ही यह भी प्रतिपादित किया कि वेदादि शस्रो से काव्य उत्कर्ष है क्योकि अल्पबुद्धि व्यक्ति को भी काव्य के द्वारा बड़ी सुगमता से चतुर्वर्गफल कि प्राप्ति संभव हैं।
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