भारतीय समाज प्राचीन काल से ही सुव्यवस्थित, सुनियोजित एवं सुगठित सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से संतुलित रहा है। संस्थाओं का विकसित स्वरूप उस समय के भारतीय समाज को शक्तिशाली तथा योजनाबद्ध बना रहा था। उन सामाजिक संस्थाओं में से एक भारतीय वर्ण-व्यवस्था भी थी।
सामाजिक संरचना को सुदृढ़ व स्थिर करने के लिए अनेक व्यवस्थाएँ बनाई जाती है, जिससे समाज के प्रत्येक प्राणी की आवश्यकताएँ पूर्ण हो और वे एक-दूसरे के विकास में सहयोग दें तथा समाज में शांति बनी रहे। विश्व की प्रायः सभी संस्कृतियों का विभाजन विभिन्न वर्गों में देखने को मिलता है। भारतीय संस्कृति में भी इस प्रकार का विभाजन वर्ण व्यवस्था व आश्रम व्यवस्था के रूप में प्राप्त होता है।
आश्रम व्यवस्था(ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास) में व्यक्तित्व स्तर पर मनुष्य को जीवन अर्थात समग्र आयु का विभाजन कर उसके कर्तव्यों का निरूपण किया गया है तथा वर्ण-व्यवस्था मनुष्य के सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्धारण कर विभिन्न वृत्तियों(कामों) द्वारा समाज को संगठित रखने व मनुष्यों के पारस्परिक हितों में तारतम्य(समन्वय) स्थापित करने का प्रयास किया गया है।
वर्ण शब्द का अर्थ- आचार्य यास्क ने अपने ग्रंथ ‘निरूक्त’ में वर्ण-व्यवस्था के वर्ण शब्द की उत्पति को 'वृञ्' धातु से निष्पन्न माना है-'वर्णो वृणोतेः' अर्थात् चुनाव करना। ऋग्वेद में वर्ण शब्द का प्रयोग 'रंग' अर्थ में हुआ है, जिसका अभिप्राय ‘जनसमूह’ से माना गया है। संस्कृत-हिन्दी कोष के विद्वान आप्टे आचार्य ने अपने शब्दकोष में वर्ण शब्द का अर्थ- रंग, रूप, सौन्दर्य, जाति, श्रेणी, वंश तथा मनुष्य बताया है। अतः ये सभी अर्थ उस समय की सामाजिक वर्ण-व्यवस्था के विभाजन के अनुसार बताए गए।
वर्ण शब्द के तीन अर्थ प्राप्त होते है-
- संज्ञार्थक- रंग, सौन्दर्य, अजर, प्रशंसा आदि।
- क्रियार्थक- रंगता अथवा वर्णन करना।
- समाज से संबंधित अर्थ- (1) आर्य या दास नीति विशेष। (2) ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चार वर्ण।
समाज व्यवस्था के संदर्भ में वर्ण शब्द से अभिप्राय ब्राह्मणादि चार वर्णों से है।
भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था |
ऋग्वैदिक काल के बाद जब समाज में लोगों की आवश्यकताएँ बढ़ने लगीं, तब मानव के द्वारा किए जाने वाले कर्मों के अनुसार समाज को चार भागों में विभाजित कर दिया गया। ऋग्वेद के दसवें मण्डल(अध्याय) में चारों वर्णों(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) का उल्लेख मानव शरीर की संरचना अथवा शारीरिक अंगों के माध्यम से किए जाने वाले कार्यों के रूप में किया गया है-
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृत।
उरु तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत।।(ऋवेद-10-90-12)
श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि चारों वर्णों की सृष्टि अथवा उत्पत्ति उनके द्वारा ही हुई है-
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्यकर्तारमपि मां विद्ध यकर्त्तारमव्ययम्।।
वर्ण विभाजन के मुख्यत: चार आधार माने गये है- 1. विराट पुरुष के अवयव से वर्णोत्पत्ति।
2. गुण के आधार पर वर्णोत्पत्ति।
3. कर्म के आधार पर वर्णोत्पत्ति।
4. रंग के आधार पर वर्णोत्पत्ति।
अत: विराट पुरुष(ब्रह्माजी) से वर्णों की उत्पत्ति, गुण, कर्म तथा रंग के अतिरिक्त अन्य और भी उत्पत्ति सिद्धांत हैं जैसे जन्म एवं के आधार पर और आवयश्कता के आधार पर वर्णोत्पत्ति परंतु ये चार मुख्य है। इस प्रकार चारों वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्ण का इन चारों सिद्धांतों(विराट पुरुष से, गुण, कर्म तथा रंग) के आधार पर वर्णन इस प्रकार हैं।
1) ब्राह्मण
वर्ण विभाजन के मुख्यत: चार आधार माने गये है- 1. विराट पुरुष के अवयव से वर्णोत्पत्ति।
2. गुण के आधार पर वर्णोत्पत्ति।
3. कर्म के आधार पर वर्णोत्पत्ति।
4. रंग के आधार पर वर्णोत्पत्ति।
अत: विराट पुरुष(ब्रह्माजी) से वर्णों की उत्पत्ति, गुण, कर्म तथा रंग के अतिरिक्त अन्य और भी उत्पत्ति सिद्धांत हैं जैसे जन्म एवं के आधार पर और आवयश्कता के आधार पर वर्णोत्पत्ति परंतु ये चार मुख्य है। इस प्रकार चारों वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्ण का इन चारों सिद्धांतों(विराट पुरुष से, गुण, कर्म तथा रंग) के आधार पर वर्णन इस प्रकार हैं।
1) ब्राह्मण
वर्णों का विभाजन कर्म पर आधारित होने के कारण ऋग्वेद में ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति विराट पुरुष के मुख से मानी गई है-‘ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्’। जिस प्रकार मनुष्य शरीर में मुख के विभिन्न अवयवों से ज्ञान ग्रहण करता है उसी तरह ब्राह्मण भी ज्ञान, धर्म आदि को ग्रहण करता है।
महाभारत के शान्तिपर्व में एक श्लोक के माध्यम से कहा गया है कि, कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था में सर्वप्रथम इस सृष्टि या जगत् में केवल ब्राह्मण ही हुए हैं। अतः ब्राह्मणों के बाद ही अन्य वर्ण अस्तित्व में आए होंगे।
न विशेषोऽस्ति सर्व ब्रह्ममिदं जगत्।
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्।।(शन्तिपर्व-188-10)
ब्राह्मण वर्ण को आर्य भी कहा जाता था क्योंकि सत्कार्य अर्थात् अच्छे कार्यों को करने वाले केवल आर्य ही थे। क्षत्रियों के द्वारा ब्राह्मणों को भूमि दान के रूप में प्राप्त होती थी। इससे ब्राह्मण एवं क्षत्रिय वर्णों के मध्य सामाजिक सम्प्रभुता(सत्ता) के लिए निरन्तर संघर्ष होता रहता था, लेकिन फिर भी ब्राह्मणों की स्थिति चारों वर्णों में सर्वोपरि थी।
दैव्यो वै वर्णो ब्राह्मणः।(तैत्तिरीय ब्राह्मण)
ब्राह्मण गुण- भगवद्गीता में तीन गुण बताए गए हैं- सत्व, रजस तथा तमस। ये तीनों गुण भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले हैं। सत्व गुण निर्मल तथा प्रकाशक होता है। ब्राह्मण में सत्व गुण प्रधान होता है। अत: ब्राह्मण का स्वरूप इस कारण शांतमय होता है।
ब्राह्मण कर्म- ब्राह्मण का कार्य मुख से पठन-पाठन, यज्ञ-तप आदि तथा धर्म का पालन करना होता है। ज्ञान विज्ञान और आस्तिकता ये सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। तत्कालिक समय में व्यवसाय को चुनने का अधिकार प्रत्येक द्विज अथवा ब्राह्मण को था और जो कोई ब्राह्मण जिस व्यवसाय अथवा कार्य को चुनता था, वह उसी वर्ण का समझा जाने लगता था ।
ब्राह्मण रंग- ब्राह्मण सत्व प्रधान होता है इस कारण ब्राह्मण श्वेत रंग का परिचायक है। श्वेत रंग शांति व अहिंसा का प्रतीक है। अत: ब्राह्मण का स्वभाव भी श्वेत रंग के भांति शांत माना गया है।
जब कोई द्विज या ब्राह्मण कुल में जन्मा हुआ व्यक्ति तप, यज्ञ, शिक्षा ग्रहण एवं प्रदान करने वाला व्यवसाय अथवा कार्य करता था, तब तो वह ब्राह्मण कहलाता ही था किन्तु यदि जब वह इसके विपरीत कोई अन्य व्यवसाय, कृषि तथा पशुपालन आदि का चुनाव करता तो उसका वर्ण परिवर्तन कर दिया जाता था।
2) क्षत्रिय
विराट पुरुष के दोनों भुजाओं से क्षत्रिय की उत्पत्ति हुई हैं-‘बाहुभ्याम् क्षत्रिय:’। राजा या प्रजा की एवं सम्पूर्ण समाज की दोनों हाथों से रक्षा करने वाला व्यक्ति क्षत्रिय होता था। जो व्यक्ति सैनिक, प्रशासनिक और राजकीय कार्यों से सम्बन्ध रखते थे, वे क्षत्रिय कहलाते थे। शक्ति का प्रतीक होने के कारण क्षत्रिय वर्ण स्वयं को सभी वर्णों से सर्वोच्च मानता था।
विराट पुरुष के दोनों भुजाओं से क्षत्रिय की उत्पत्ति हुई हैं-‘बाहुभ्याम् क्षत्रिय:’। राजा या प्रजा की एवं सम्पूर्ण समाज की दोनों हाथों से रक्षा करने वाला व्यक्ति क्षत्रिय होता था। जो व्यक्ति सैनिक, प्रशासनिक और राजकीय कार्यों से सम्बन्ध रखते थे, वे क्षत्रिय कहलाते थे। शक्ति का प्रतीक होने के कारण क्षत्रिय वर्ण स्वयं को सभी वर्णों से सर्वोच्च मानता था।
क्षत्रिय गुण- क्षत्रिय में रजोगुण प्रधान होने के कारण वह शूरवीर(योद्धा), तेज, ओज तथा यशस्वी आदि होते हैं। क्षत्रिय में सत्व गुण कम तथा रजो गुण अधिक रहता है।
क्षत्रिय कर्म- क्षत्रिय का मुख्य कार्य प्रजा की रक्षा, युद्ध करना, प्रजा से कर एकत्र करना, दंड का निर्धारण करना, राज्य धर्म का पालन करना, राज्य में शांति, न्याय, अहिंसा आदि का ध्यान रखना।
क्षत्रिय रंग- क्षत्रिय में रजो गुण प्रधान होने के कारण क्षत्रिय को लाल रंग का परिचायक माना गया है।
क्षत्रिय वर्ण के कुछ लोग अच्छे शिक्षक, दार्शनिक व विद्वान भी थे तथा वे अन्य विद्वानों को शरण भी देते थे। अतः राजा जनक जैसे अनेक शासक तथा प्रसिद्ध विद्वान क्षत्रिय वर्ण के ही थे।
को अस्या वो द्रुहोऽवद्यवत्या उन्नेष्यति क्षत्रियो इच्छन्।
को यजकामः क उ पूर्तिकामः को देवेषु वनुते दीर्घमायुः।।(अथर्ववेद-7-103)
अनेक क्षत्रिय विद्वानों ने ब्राह्मण विद्वानों को विभिन्न स्तरों पर समयानुसार चुनौतियाँ भी दीं तो दूसरी ओर क्षत्रिय वर्ण की कन्याओं से ब्राह्मणों के विवाह करने का विशेष उदाहरण भी उत्तरवैदिक काल में प्राप्त होता है। अतः तत्कालीन भारतीय समाज में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय वर्ण प्रभुता(सत्ता) सम्पन्न जातियों के रूप में प्रभावपूर्ण ढंग से सक्रिय तथा विस्तृत होने लगे जिससे धीरे-धीरे वर्ण व्यवस्था पर इनका पूर्ण अधिकार हो गया।
3) वैश्य
विराट पुरुष के उरु से वैश्य वर्ण की उत्पत्ति हुई है-‘उरुभ्याम् वैश्यः’। जिस प्रकार उरु (कटि या पेट का निचला व जांघो का ऊपरी भाग) से शरीर को बल व पोषण प्रदान करते है, उसी प्रकार वैश्य व्यापार द्वारा राज्य को धन प्रदान करते हैं।
वैश्य गुण- वैश्य में रजस् व तमस् ये दोनों ही गुण विद्यमान होते हैं, अतः वह कृषि-व्यापार आदि से सम्बन्ध वृत्ति को धारण करता है। वैश्य में तमो गुण गौण रहता है, रज गुण प्रधान रहता है।
वैश्य कर्म- कृषि, भूमि जोतना व अन्न उत्पन्न करना, व्यापार एवं पशुपालन आदि वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं।
वैश्य रंग- पीला रंग वैश्य वर्ण का परिचायक बताया गया है। क्योंकि पीला रंग रजो गुण प्रधान होता है तथा वैश्य वर्ण में रजोगुण माना गया है।
व्यापार करने वाला व्यक्ति वैश्य होता था। समय में तेजी से परिवर्तन होने से वैश्य वर्ण के कुछ लोग जिन्हें पहले अपने से उच्च वर्णों(ब्राह्मण एवं क्षत्रिय) के साथ याज्ञिक क्रियाओं में शामिल किया जाता था, वे अब इन कार्यों से वन्चित होने लगे थे। यह वैश्य वर्ण अब धीरे-धीरे शूद्रों के समकक्ष अथवा समीप आने लगा। अतः वैश्यों की सामाजिक प्रतिष्ठा एवं अधिकार कम होने लगे, जिससे इनकी सामाजिक स्थिति पहले से और भी निम्न स्तर की हो गई। वैश्य वर्ण के अन्तर्गत व्यापार करने वाले व्यक्तियों में रथकार एवं बढ़ई अब शूद्र वर्ण के निकट पहुँच गये थे। वैश्य एवं शूद्र वर्ण क्षत्रियों के अनुगामी अर्थात् आज्ञाकारी एवं अनुयायी बन गये थे।
वैश्यशूद्रवर्णो क्षत्रियस्यानुगामिनौ कुर्वन्ति।(ऐत्तरेय ब्राह्मण)
वैश्य अन्य सभी वर्णों के लिए मुख्य थे, क्योंकि इनके द्वारा किया गया श्रम-परिश्रम सभी वर्ण जातियों के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण था।
4) शूद्र
विराट पुरुष के पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई हैं-‘पद्भ्यां शूद्रोविनिर्मित:’। अन्य तीनों वर्णों(ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) के चरणों में रहने वाला तथा इनकी सेवा करने वाला व्यक्ति शूद्र होता था।
विराट पुरुष के पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई हैं-‘पद्भ्यां शूद्रोविनिर्मित:’। अन्य तीनों वर्णों(ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) के चरणों में रहने वाला तथा इनकी सेवा करने वाला व्यक्ति शूद्र होता था।
शूद्र गुण- शूद्र में तमो गुण ही प्रधान रूप से रहने के कारण शूद्र ज्ञान से रहित हैं। शूद्र वर्ण में रजो गुण कम तथा तमो गुण अधिक रहता है।
शूद्र कर्म- शूद्रों का कार्य परिश्रम अर्थात् सेवा करना है। ब्राह्मण आदि तीनों वर्ण की सेवा करना ही शूद्र वर्ण का कार्य हैं।
शूद्रों का यह कर्म वंशानुगत हुआ करता था, क्योंकि यह सबसे निम्न एवं तुच्छ वर्ण था तथा इन्हें सेवा भाव के कार्य को छोड़कर कोई अन्य वर्ण का कार्य(वर्णोन्नति) करने की अनुमति नहीं थी। अपने से उच्च वर्ण की सेवा करना ही इनका धर्म था। अतः शूद्रों को दुष्कर्मों अर्थात दास-दासी या नौकर के कार्यों को करने तक ही सीमित रखा जाता था। शूद्रों के लिए भिक्षा, यज्ञ, व्रतादि कार्य निषिद्ध थे-
भैक्ष्यहोम व्रतैर्हीनास्तथैव गुरूवासित।(महाभारत वनपर्व-150-36)
शूद्र रंग- काला रंग शूद्र वर्ण का परिचायक है, क्योंकि काला रंग तमोगुण प्रधान शूद्र वर्ण के लिए बताया गया है।
जब वैश्य वर्ण शूद्रों के समान तथा बहुत निकट पहुँच गया तो दोनों के मध्य कोई विशेष अन्तर नहीं रह गया था। अन्तर केवल इतना था कि शूद्रों की स्त्रियों का जीवन तथा सम्पत्ति कुछ भी सुरक्षित नहीं थी, परन्तु वैश्य वर्णों की स्त्रियाँ तथा उनका जीवन दोनों ही सुरक्षित थे। प्राचीन भारतीय सामाजिक वर्ण-व्यवस्था में शूद्रों को हेय एवं तुच्छ दृष्टि से देखा जाता था तथा इन्हें यज्ञ करने एवं शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। अतः इस वर्ण की सामाजिक स्थिति अत्यन्त दयनीय बनी रही।
निष्कर्ष-
गौतम मुनि ने अपने धार्मिक ग्रन्थ ‘धर्मसूत्र’ में वर्णों के विषय में पुनर्जन्म की कल्पना का उल्लेख करते हुए कहा है कि, जो कोई भी वर्ण अपने निर्धारित या विहित कर्मों एवं चरित्र का परित्याग करके निकृष्ट व्यवहार तथा दुष्कर्म किया करते थे, वे मृत्यु के बाद अपने से निम्न वर्णों या योनियों में जन्म प्राप्त करते थे।
वैदिक काल के बाद यह वर्ण-व्यवस्था कर्मप्रधान न रहकर वंशानुगत हो गई थी तथा वर्ण का निर्धारण वंश में जन्म के आधार पर ही होने लगा, फिर चाहे वह कोई भी कार्य करे। महाभारत में विश्वामित्र, द्रोणाचार्य, कर्ण, द्रौपदी तथा अश्वत्थामा आदि कुछ ऐसे ही चरित्र एवं उदाहरण हैं, जिससे यह ज्ञात होता है कि वर्ण-व्यवस्था का आधार कर्मप्रधान न होकर जन्म ही बना रहा, जो कि समाज में आज भी प्रचलित है।
कर्मशूद्रे कृषिर्वैश्ये संग्रामः क्षत्रियेस्मृतः।
ब्रह्मचर्यं तपो मन्त्राः सत्यं च ब्राह्मणे सदा।।(महाभारत, शान्तिपर्व-2-7-25)
ब्रह्मचर्यं तपो मन्त्राः सत्यं च ब्राह्मणे सदा।।(महाभारत, शान्तिपर्व-2-7-25)
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