पुरुषार्थ चतुष्ट्य

मनुष्य इस लौकिक जीवन के प्रति जागरुक होते हुए परलौकिक (दूसरे लोक) जीवन के प्रति भी अत्यधिक उत्साहित रहा है। वह अपने व्यावहारिक जीवन की अभिव्यक्ति धर्म की भावना और व्यव्हार की नैतिकता से करता रहा है। इस प्रकार स्वर्ग प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले कर्म में आस्था पुरुषार्थ के अंतर्गत आता है। मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन के प्रति पारंपरिक रूप से आस्था का भाव इसके बिना असंभव है।


पुरुषार्थ शब्द 'पुरुष' और 'अर्थ' से मिलकर बना है(पुरुष+अर्थ= पुरुषार्थ)।


पुरुष का अर्थ है देहधारी मनुष्य और अर्थ शब्द का अभिप्राय साध्य, लक्ष्य तथा प्रयोजन से है। पुरुषार्थ मनुष्य के जीवन का वह परम लक्ष्य या प्रयोजन है, जिसकी प्राप्ति के लिए वह सदैव प्रयत्नशील तथा क्रियाशील रहता है। पुरुषार्थ मनुष्य जीवन के लक्ष्यों तथा उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ हैं जिनको पुरुषार्थ चतुष्ट्य या चतुर्वर्ग भी कहा गया हैं। इसमें भौतिक(सांसारिक), धार्मिक(नैतिक) तथा आध्यात्मिक(ईश्वरीय) तत्वों आदि का सन्निवेशन(मिश्रण) है।
धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष
पुरुषार्थ चतुष्ट्य

भौतिक अर्थात शारीरिक इन्द्रियों एवं आध्यात्मिक अर्थात् आत्मा या परमात्मा से संबंध रखने के बीच का संतुलित दृष्टिकोण ही पुरुषार्थ का सही स्वरूप है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से समन्वित पुरुषार्थ व्यक्ति के जीवन को अर्थपूर्ण(गरिमा-मण्डित) बनाता है तथा सांसारिक मोह के सभी बंधनों से मुक्त होने के लिये व्यक्तित्व का निर्माण भी करता है। इसलिए व्यक्ति धर्म का अनुसरण करता हुआ सांसारिक सुख और उपभोग का अनुपालन करता है। वह भक्ति का अनुगमन करके मोक्ष प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ता है।

धर्म, अर्थ तथा काम पुरुषार्थ चतुष्ट्य में त्रिवर्ग के नाम से जाने जाते हैं। यह तीनों पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं। त्रिवर्ग पुरुषार्थ मनुष्यों के द्वारा की जाने वाली क्रियाएं हैं तथा मोक्ष इन तीनों क्रियाओं का फल है। धर्म, अर्थ तथा काम कर्तव्यों के पूर्ण होने के बाद मनुष्य को मोक्ष रूपी फल की प्राप्ति होती है।

धर्म
धर्म धृ-धारण पूर्वक मनिन् प्रत्यय लगने से निष्पन्न(उत्पन्न) हुआ है। "ध्रियतेऽनेनेति धर्मः" अर्थात् जिसका धारण किया जाए वह धर्म है। धर्म न केवल मनुष्य के सम्यक् व्यवहार, आचरण, आदर्श एवं मर्यादित कर्तव्यों से संबधित है अपितु समाज व्यवस्था के संचालन व नियमन से भी सम्बन्धित है।

"वेदोऽखिलो धर्ममूलम्" अर्थात् वेद धर्म के मूल हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि चारों वेद धर्म के मूल प्रमाण माने गये हैं।

आचार्य मनु ने अपने धार्मिक ग्रन्थ मनुस्मृति में वेद, स्मृति, सदाचार और मन की प्रसन्नता ये चार साक्षात् धर्म के लक्षण माने हैं।
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियात्मनः।
उत्तच्चतुर्विधे प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।


धर्मशास्त्र में धर्म को तीन वर्गों में बाँटा गया है-
1) सामान्य धर्म- भगवद्गीता में 30 सामान्य धर्मों का उपदेश है, जो इस प्रकार हैं- सत्य, दया, तपस्या, पवित्रता, कष्ट सहने की क्षमता, मन का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य का पालन, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, संतोष, आत्मचिंतन, भोग त्याग, अन्न दान, सज्जन संगति, पूजा, यज्ञ, ईश् वंदना, आत्म समर्पण आदि।

2) विशिष्ट धर्म- किसी व्यक्ति के द्वारा विशेष रूप से पालन करना, इसको स्वधर्म भी कहा जा सकता है। ये धर्म प्रत्येक व्यक्ति के आश्रम व वर्ण के अनुसार होते हैं। वर्णधर्म, आश्रम धर्म, कुलधर्म, राजधर्म, नैमित्रिकधर्म, देशधर्म ये विशिष्ट धर्म के अंतर्गत आते हैं।


3) आपद् धर्म- आपद् धर्म का पालन सामान्य परिस्थितियों में न होकर उन विशिष्ट परिस्थितियों में करणीय है जो किसी आपत्ति या दुर्घटना के कारण उपस्थित होती हैं।


आचार्य याज्ञवल्क्य ने धर्म के षड्विध स्वरूप बताए हैं-

1) वर्णाश्रम धर्म- प्रत्येक मनुष्य का उसके वर्ण के अनुरूप तथा आयु अनुसार आश्रम में प्रवेश करने के उपरांत नियमित कर्तव्यों का पालन करना वर्णाश्रम धर्म है। जैसे- ब्राह्मण वर्ण के लिए ब्रह्मचर्याश्रम में प्रवेश करने पर पलाश दण्ड धारण करना।

2) आश्रम धर्म- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि आश्रम के अनुसार कर्तव्य या धर्म का पालन करना। जैसे- ब्रह्मचर्याश्रम में वेदाध्ययन, भिक्षाचरण करना आदि।

3) वर्णधर्म- ब्राह्माणादि वर्ण के अनुसार धर्म का पालन करना। जैसे- ब्राह्मण के लिए वेदाध्ययन करना तथा मदिरापान का निषेध होना आदि।

4) गुण धर्म- राजा के लिए अभिषेक, प्रजापालन आदि धर्म का पालन करना।

5) निमित्त धर्म- किसी कारण से किए जाने वाले कर्तव्य। जैसे- पश्चाताप आदि।

6) साधारण धर्म- सत्य, अहिंसा, क्रोध न करना आदि। इस धर्म का पालन करना सभी मनुष्यों का मौलिक कर्तव्य है।

मनु द्वारा धर्म के दस लक्षण हैं- धृति(धैर्य करना), क्षमा (दुर्भावना न करना), दम(मन पर नियंत्रण) अस्तेय (चोरी न करना), शौच(पवित्रता), इंद्रियसंयम(इन्द्रियों को वश में करना), ज्ञान, विद्या, सत्य, क्रोध का परित्याग।
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।


महर्षि याज्ञवल्क्य ने धर्म के चौदह स्थान बताये हैं- पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, षड् वेदांग(शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष), चार वेद(ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद), यह चौदह धर्म के साधक हैं।

पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राङ्गामिश्रिताः।
वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश।।

अर्थ

"अर्थ्यते सर्वेः इति अर्थः" अर्थात् अर्थ वह अभिलाषित वस्तु है, जिसे प्राप्त करने की चेष्टा सभी मनुष्य करते हैं। अर्थ सभी भौतिक आवश्यकताएँ पूर्ण करता है, तथा धर्म व काम रूप पुरुषार्थों को भी सिद्ध करता है।


अर्थोपार्जन(अर्थ प्राप्त करने) की वृत्तियाँ(साधन)- विद्या, शिल्प, नौकरी, सेवा, पशुपालन, व्यापार, कृषि, धैर्य, भिक्षा और ब्याज। इन सभी वृत्तियों का समाज में महत्त्व होने के कारण ही भारतीय विद्वानों ने वर्ण व्यवस्था(ब्राह्मण, क्षेत्रीय, वैश्य तथा शूद्र) में विभिन्न वर्णों की वृत्तियों का समुचित वर्णन किया है। उदाहरण स्वरूप ब्राह्मण शिक्षा संबंधी, क्षत्रिय युद्ध संबंधी, वैश्य व्यापार संबंधी और शूद्र सेवा या स्वच्छता संबंधी कार्य करता है। शुक्राचार्य ने विद्या, शूर-वीरता, दक्षता, बल, धैर्य, मित्र, सहज से अर्थ प्राप्ति की बात कही है।
महाभारत में कृषि, वाणिज्य, गौ रक्षा, विविध, शिल्प आदि को अर्थ साधन बताया है।
मनु ने भी अर्थोपार्जन के साधनों में दस साधनों को विशेष महत्व दिया-विद्या, शिल्प, नौकरी, सेवा, पशुपालन, व्यापार, कृषि, धैर्य, भिक्षा और ब्याज।

कुछ आचार्यों ने त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ तथा काम) में अर्थ को अधिक महत्वपूर्ण माना है। अतः अर्थ नामक पुरुषार्थ जीवन निर्वाह के लिए अत्यंत आवश्यक है।

काम
काम शब्द का अर्थ कामना, इच्छा, वासना, तृष्णा तथा सुख के साधन आदि को माना गया है। काम्यते इति काम: अर्थात् विषय एवं इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला मानसिक आनन्द ही काम कहलाता है।
महर्षि शुक्राचार्य ने कहा है कि- कामक्रोधो मद्यतमौ प्रयोक्तव्यौ यथोचितम् अर्थात् काम और क्रोध प्रबल मद्य अथवा रसपान हैं, इनका सेवन सावधान होकर उचित मात्रा में करना चाहिए।
यह मानव जीवन का तीसरा पुरुषार्थ है, काम से प्रेरित होकर ही मनुष्य धर्म,अर्थ तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्न या क्रियाएं करता है। काम से विविध कामनाएं मन में उत्पन्न होती हैं तथा इन्हीं कामनाओं से मनुष्य कार्य करने की चेष्टा करता है। संसार में सभी मनुष्य किसी न किसी कामना से ही कार्य करते हैं।

मोक्ष

यह चतुर्थ पुरुषार्थ है, जिसे अन्य सभी पुरुषार्थों में श्रेष्ठ माना जाता है। मोक्ष शब्द त्यागना अर्थ वाली 'मुच्' धातु से बना है। इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- "मुच्यते सर्वदुःखबन्धनैर्यत्र सः मोक्षः" अर्थात् जिस पद को पाकर जीव आध्यात्मिक(अज्ञान युक्त कष्ट, द्वेष, क्रोध आदि) आधिदैविक (दैविक शक्तियों द्वारा कष्ट जैसे सुनामी, बाढ़, भूकम्प आदि), आधिभौतिक(सांसारिक वस्तुओं से प्राप्त कष्ट जैसे प्रेमभाव तथा शत्रुभाव द्वारा प्राप्त कष्ट आदि) सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है, वह मोक्ष है। मोक्ष की प्राप्ति द्वारा मनुष्य सभी प्रकार की इच्छाओं, बंधनों, सुख-दुःख, प्रेमभाव, ईर्ष्या आदि से मुक्त हो जाता है।



मोक्ष के लिए मुक्ति, निर्वाण, केवल्य, ब्रह्मप्राप्ति आदि शब्द का प्रयोग किया जाता है। पुरुषार्थ वर्ग में धर्म, अर्थ ओर काम भौतिक उद्देश्यों को सिद्ध करते हैं, मोक्ष आत्मोन्नति करने वाला आध्यात्मिक लक्ष्य है। यह मनुष्य को संसार के चक्र से मुक्त करता है अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के उपरांत मनुष्य जन्म-मरण की श्रृंखला से मुक्त हो जाता है।

सांख्य दर्शन के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति वह व्यक्ति कर सकता है जो द्वैधीभाव से रहित, आत्मतत्व चिन्तन करने वाले सभी प्राणियों के हित में संलग्न ऋषि, काम क्रोध रहित, जितेन्द्रिय, आत्मतत्वज्ञ हो वह ही ब्रह्म पद को प्राप्त करते हैं। योग भी ब्रह्म प्राप्ति का साधन है। योग वास्तव में चित्तवृत्तियों का निरोध है। योग से मनुष्य चित-विकारों को दूर कर ब्रह्म में लीन हो जाता है, तब परमात्मा रूप हो जाता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

इस प्रकार पुरुषार्थ मनुष्य के जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से लेकर जीवनपर्यन्त किए जाने वाले समग्र क्रिया-व्यापार व उद्योग का सार है, जिससे संसार का कोई भी व्यक्ति अछूता नहीं है।

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