वैदिक वाङ्ग्मय - भारतीय वैदिक साहित्य का स्वरूप

प्राचीन काल से ही वैदिक वाङ्ग्मय संपूर्ण विश्व को विविध उपदेश देता रहा है, इस कारण संस्कृत साहित्य में इसका अत्यधिक महत्व है। संस्कृत साहित्य में वैदिक साहित्य का सर्वोच्च स्थान है। वेदों के अध्ययन द्वारा सामाजिक, राजनैतिक, भौगोलिक,धार्मिक तथा सांस्कृतिक आदि सभी प्रकार के ज्ञान प्राप्त करना संभव हुआ है।

वेद 
संस्कृत साहित्य के सर्व प्राचीन ग्रन्थ वेद हैं, भारतीय संस्कृति प्राचीन संस्कृति है इसका प्रमाण भी वेद ग्रन्थ ही हैं।
अर्थ- वेद शब्द विद् धातु तथा घञ् प्रत्यय से मिलकर बना है। वेद शब्द का अर्थ 'ज्ञान' है।
वेद शब्द का निर्वचन है-विद्यते ज्ञायतेऽनेनेति वेद: अर्थात् जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाए वही वेद हैं।

विभिन्न विद्वानों ने वेद से प्राप्त ज्ञान की परिभाषा भिन्न-भिन्न बताई है-
  • जिससे इष्ट की प्राप्ति तथा अनिष्ट के त्याग के अलौकिक उपाय को जाना जाता है, वे वेद हैं।
  • वेद द्वारा धर्मादि पुरुषार्थ जाने जाते हैं या प्राप्त किए जाते हैं।
  • जिसके द्वारा सभी सत्य ज्ञान की अनुभूति होती है वह वेद हैं।
  • वेद मनुष्य को करणीय तथा अकरणीय कर्मों का ज्ञान कराने वाला अक्षय कोष हैं।
मीमांसकों द्वारा प्रत्यक्ष अर्थात् सामने स्थित वस्तु और अनुमान से भी जिसका उपाय तथा ज्ञान नहीं हो सकता, उसका ज्ञान केवल वेद द्वारा ही संभव है।
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते। 
एतं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता।।

वेद का द्वितीय नाम श्रुति है, क्योंकि गुरु के द्वारा उच्चारित वाक्यों या कथनों को शिष्य सुनकर ही उन कथनों को स्मरण(याद) रखते थे, इस कारण वेद को श्रुति भी कहा जाता है।

स्वरूप- वेद 'अपौरुषय' हैं अर्थात् वेद की रचना किसी पुरुष या मानव विशेष द्वारा नहीं किया गया है। आस्तिक दर्शन वेदों को ईश्वर की वाणी के रूप में या अपौरुषय शब्द राशि के रूप में मानते हैं अर्थात् वेद की रचना किसी पुरुष विशेष द्वारा नहीं मानते हैं। वेद आगमन प्रमाण हैं, समस्त ज्ञान का स्त्रोत हैं। वेद के अध्ययन से लोग जीवन दर्शन को संचालित कर सकते हैं।


आचार्य मनु के द्वारा वेद धर्म के मूल हैं-'वेदोऽखिलो धर्ममूलम्' अर्थात् धर्म का मूल ग्रन्थ वेद ग्रन्थ हैं।
मनुस्मृति में आचार्य मनु ने समस्त ज्ञान का कोष(भंडार) वेद को कहा है, अर्थात सर्वज्ञानमयो हि स:।।

प्राचीन परम्परा में वेद के अन्तर्गत मंत्र और ब्राह्मण दोनों भाग सम्मिलित हैं।
'मंत्रब्रह्मणयोर्वेदनामधेयम्'
मंत्र का अर्थ है उच्चारण द्वारा देवता की स्तुति तथा यज्ञ-अनुष्ठान करना और ब्राह्मण का अर्थ है यज्ञ के कर्मकाण्ड एवं उसके प्रयोजनों की व्याख्या करना।
प्राचीन परम्परा में वेद के ऋत्विक् थे। वैदिक यज्ञ में जो व्यक्ति पुरोहित(पण्डित,विद्वान) के रूप में अनुष्ठान कराते थे, उन्हें ऋत्विक् कहा जाता था।

वैदिक वाङ्ग्मय को चार भागों में बाँटा गया है- 1) वेद संहिता, 2) ब्राह्मण ग्रन्थ, 3) आरण्यक ग्रन्थ, 4) उपनिषद्।
विभाजन- कृष्ण द्वैपायन(व्यास) ने वेदों को चार भागों में बाँटा हैं इसलिए उन्हें वेदव्यास के नाम से भी जाना जाता है।
चार वेद हैं-
1) ऋग्वेद संहिता।
2) यजुर्वेद संहिता। 
3) सामवेद संहिता।
4) अथर्ववेद संहिता।
प्रथम तीन वेद(ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद) को वेदत्रयी कहा जाता है।

रचनाकाल:- वेदों के रचनाकाल के विषय में प्रत्येक विद्वानों का मत भिन्न-भिन्न है। मैक्समूलर द्वारा वैदिक साहित्य का प्रारम्भ 1200 ई.पू. मानते हैं। ए. बेबर ने वेदों का समय 1200 से 1500 ई.पू. बताया है। इस प्रकार कई और विद्वानों ने अपने-अपने मत बताए हैं।

ऋग्वेद
यह प्राचीनतम तथा प्रथम वेद है। छंदोबद्ध मन्त्रों को ऋक् कहते है तथा ऋग्वेद में विभिन्न देवताओं के स्तुति परक छंदोबद्ध मन्त्रों का संकलन है। ऋग्वेद ऋत्विक् ‘होता’ कहलाता है।
शाखाएं- पतञ्जलि आचार्य ने अपने महाभाष्य में ऋग्वेद की 21 शाखाओं का उल्लेख किया है। किन्तु आचार्य चरणव्यूह के अनुसार इनमें  केवल 5 शाखाएं ही मुख्य हैं।
पांच शाखाएं हैं- शाकल, बाष्कल, आश्वलायन,शांखायन तथा माण्डूकायन।
विभाजन- ऋग्वेद का विभाजन दो प्रकार से किया गया है - मण्डल-क्रम तथा अष्टक-क्रम।
मण्डल-क्रम- 10 मण्डल हैं, 85 अनुवाक हैं, 1028 सूक्त हैं तथा लगभग 10580 मंत्र हैं।
अष्टक-क्रम- 8 अष्टक हैं। प्रत्येक अष्टक में 8 अध्याय हैं, इस प्रकार 64 अध्याय हैं तथा 2024 वर्ग हैं।
ऋग्वेद का अपर नाम दशतयी श्रुतिः है। ऋग्वेद का सर्वप्रथम सूक्त अग्नि सूक्त है तथा ऋग्वेद में इन्द्र देवता के सर्वाधिक मंत्र प्राप्त होते हैं।
ऋग्वेद में अनेक सूक्त हैं जो इस समय की समाजिक, धार्मिक, आर्थिक व राजनैतिक स्थिति को प्रकाशित करते हैं। ऋग्वेद में दार्शनिक विषयों की भी झलक मिलती है। जैसे हिरण्यगर्भ सूक्त, नासदीय सूक्त, पुरुष सूक्त आदि ये सभी दार्शनिक सूक्त हैं।

यजुर्वेद

यह दूसरा वेद है, जो कर्म (यज्ञ) का प्रतिपादन करता है। यज्+उसि प्रत्यय से 'यजुष्' शब्द बना है। यजुष् का अर्थ है यज्ञ के साधक मंत्र। यजुर्वेद कर्मकाण्ड का वेद है। यजुर्वेद का ऋत्विक् 'अध्वर्यु' है। पतञ्जलि के महाभाष्यानुसार यजुर्वेद में 101 या 102 शाखाएं थी। यजुर्वेद के दो सम्प्रदाय हैं- ब्रह्म सम्प्रदाय तथा आदित्य सम्प्रदाय। यजुर्वेद दो भाग में विभक्त है-
कृष्ण यजुर्वेद- यह प्रथम है। इसे ब्रह्मवेद भी कहा जाता है, क्योंकि यह ब्रह्म सम्प्रदाय से सम्बन्धित है तथा इसका प्रवचक वैशम्पायन को माना जाता है। इसकी चार शाखाएँ तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक तथा कपिष्ठल उपलब्ध हैं।
शुक्ल यजुर्वेद- इसे वाजसनेयि संहिता कहते है। इसकी दो शाखाएँ उपलब्ध हैं- माध्यन्दिन एवं काण्व। वाजसनेयि संहिता आदित्य सम्प्रदाय से सम्बन्धित है तथा इसके ऋषि याज्ञवल्क्य हैं।

सामवेद
साम शब्द में 'सा' का अर्थ है ऋचा तथा 'अम' का अर्थ है गान। सामवेद का अर्थ है सामन् अर्थात् गान का वेद। सामवेद का प्रधान विषय उपासना है, इसके अधिकांश मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं। सामवेद का देवता 'सूर्य' है एवं ऋत्विक् 'उद्गाता' हैं। महाभाष्य के अनुसार 1000 शाखाएं हैं। परंतु वर्तमान में 3 शाखा उपलब्ध हैं।
शाखाएं- कौथुमीय, राणायणीय तथा जैमिनीय।
सामवेद की कुल मंत्र संख्या 1875 हैं। सामवेद में मन्त्रों के आरोह-अवरोह व उचित मात्राओं से युक्त सुस्वर उच्चारण का वर्णन है।
इसमें सात स्वर (स, रे, ग, म, प, ध तथा नि) का वर्णन है। सामवेद में तीन ग्राम हैं- मन्द, मध्य तथा तीव्र। सामगान के तीन प्रकार- ग्रामगान(गांव), आरण्यगान(वन), ऊहगान तथा उह्य गान(यह दोनों गान धार्मिक कार्यों या अवसरों से सम्बन्धित हैं)।
सामविकार 6 हैं- विकार, विश्लेषण, विकर्षण, अभ्यास, विराम, तथा स्तोभ।

अथर्ववेद
यह तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद) का केवल सार रूप है। इस वेद का  ऋत्विज 'ब्रह्मा' को माना गया है, इसलिए इसे ब्रह्मवेद भी कहते हैं। 'अथर्वन्' ऋषि के नाम पर इस वेद का नाम अथर्ववेद पड़ा।
शाखाएं- आचार्य पतंजलि के महाभाष्य में इसकी 9 शाखाओं का उल्लेख प्राप्त होता है- पैप्पलाद, तौद, मौद, शौनकीय, जाजल, जलद, ब्रह्मवेद, देवदर्श तथा चारणवैद्य। परंतु वर्तमान में केवल दो शाखाएं पैप्पलाद तथा शौनकीय ही उपलब्ध हैं।
अथर्ववेद में 50 से अधिक सूक्त गद्यात्मक रूप में वर्णित हैं। इसमें विशेष रूप से इहलोकिक विषयों का वर्णन है।
साहित्य के रूप में सभी वेद संहिताएं महत्वपूर्ण हैं, आवश्यकता अनुसार वेद का साहित्य बढ़ता गया और ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् साहित्य क्रमशः विकसित हुए।

ब्राह्मण ग्रन्थ
वेद ग्रन्थों के बाद ब्राह्मण ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। ब्राह्मण शब्द 'बहू वर्धने' धातु एवं 'अण्' प्रत्यय तथा ‘ब्रह्मन्’ शब्द से बना है(ब्रह्मन् शब्द + बहू धातु + ण् प्रत्यय=ब्राह्मण) ब्राह्मण शब्द के तीन अर्थ हैं-
(1)ब्रह्मन् शब्द का अर्थ है मन्त्र- ब्रह्म वै मंत्रःब्राह्मण ग्रन्थ में मन्त्रों की व्याख्या हैं इस कारण ये ब्राह्मण हैं।
(2)ब्रह्मन् का अर्थ हैं यज्ञ- ब्रह्म यज्ञः। यज्ञ की व्याख्या, विधि-विधान का वर्णन होने के कारण ये ब्राह्मण ग्रन्थ कहलाये।
(3)ब्रह्मन् का अर्थ है रहस्य। वैदिक रहस्यों को बताने के कारण इन्हें ब्राह्मण कहा गया।
ब्राह्मण ग्रन्थों का मुख्य विषय यज्ञों का प्रतिपादन तथा उनकी विधियों की व्याख्या करना है।
मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्।
प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण ग्रन्थ इस प्रकार हैं-
ब्राह्मण ग्रन्थों में कथाओं, आख्यानों तथा उपाख्यानों के माध्यम से विभिन्न याज्ञिक विधियों का वर्णन किया गया है।

आरण्यक ग्रन्थ
आरण्यक ग्रन्थों के अन्तर्गत यज्ञ प्रकिया से आध्यात्मिक तत्वों का वर्णन है। ये ग्रन्थ कर्मकाण्ड से ज्ञान-कांड के चिन्तन को बताते हैं। अत: ये ब्राह्मण ग्रन्थ के पूरक तथा उपनिषद् के प्रारंभिक भाग हैं। आरण्यक में, ब्राह्मण ग्रन्थ में वर्णित कठिन कर्मकाण्ड वाले यज्ञों की अपेक्षा यज्ञ की सरल विधि-विधानों का वर्णन है।
आरण्यक अरण्य शब्द से बना है। अरण्य वन (जंगल) को कहा जाता है। अतः जिन ग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन अथवा आत्मचिंतन अरण्य के शांत तथा निर्मल वातावरण में होता था, उन सभी ग्रन्थों को आरण्यक कहा जाता था।
अरण्याध्ययनादेतादारण्यकमितीर्यते। (तैत्तिरीयारण्यक श्लोक-6)

प्रत्येक वेद के अपने-अपने आरण्यक ग्रन्थ हैं जो इस प्रकार है-
इस प्रकार आरण्यक ग्रन्थ अरण्य में निवास करने वाले वानप्रस्थ आश्रम के लोगों के लिए उपादेय हैं तथा उपनिषद् सन्यासी के लिए उपयोगी हैं।

उपनिषद्
उपनिषद् शब्द 'उप' एवं 'नि' उपसर्ग तथा 'सद्' धातु से 'क्विप्' प्रत्यय लग कर बना है(उप+नि+सद्+क्विप्=उपनिषद्)
उप का अर्थ है- समीप या पास में, तथा सद् का अर्थ है- बैठना। इस प्रकार उपनिषद् का अर्थ है- गुरु के समीप बैठना। अतः उपनिषद् का मुख्य अर्थ है, ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से गुरु के पास जाना या समीप बैठना।
शंकराचार्य ने उपनिषद् को ब्रह्म-विद्या अथवा आध्यात्म-विद्या  कहा है। वैदिक वाङ्ग्मय में उपनिषद् का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उपनिषद् को रहस्यविद्या भी कहा जाता हैं, क्योंकि प्राचीन काल में गुरु एवं ऋषियों के द्वारा विद्या या ब्रह्म- विद्या का ज्ञान एकांत स्थान में किया जाता था।

वेद का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषद् को वेदांत भी कहा जाता है। अतः वेदों में वर्णित ज्ञान की अंतिम सीमा उपनिषदों में ही है।
उपनिषद् का मुख्य विषय ब्रह्म-विद्या है, तथा इसके साथ ही इसमें आत्मा, सृष्टि, जीव, प्राण, माया, विद्या, अविद्या, पुनर्जन्म, मोक्ष, कर्म तथा नैतिकता आदि का भी वर्णन प्राप्त होता है।
मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार उपनिषदों की संख्या 108 मानी जाती है। परंतु इनमें से केवल 14 उपनिषद् ही प्रामाणिक रूप से उपलब्ध हैं तथा जिनमें से 10 उपनिषद् ही महत्वपूर्ण हैं। जिन उपनिषदों पर शंकराचार्य ने भाष्य लिखा है, वह दस उपनिषद् इस प्रकार हैं-
ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य-तित्तिरि:।
ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा।।
प्रत्येक वेद के अपने-अपने उपनिषद् है जो की इस प्रकार है-
इस प्रकार वैदिक वाङ्ग्मय (वेद-ब्राह्मण-आरण्यक-उपनिषद्) का संस्कृत साहित्य में विशेष महत्त्व है। वैदिक वाङ्ग्मय के बिना संस्कृत साहित्य अधूरा है। संस्कृत साहित्य का प्रारम्भ वैदिक साहित्य से हुआ था। प्राचीन वैदिक साहित्य ने ही लौकिक साहित्य को जन्म दिया है। कालान्तर में वेद, ब्राह्मणादि की रचना हुई । चारों वेदों के अपने अलग-अलग ब्राह्मण, आरण्यक आदि ग्रन्थ होने के कारण वेद ही सर्वोपरि ग्रन्थ हैं, परन्तु ब्राह्मण आदि ग्रन्थों का भी विशेष महत्व है। जहां ब्राह्मण कर्मकाण्ड पर आधारित हैं तो वहीं आरण्यक ग्रन्थों में विशेष रूप से ज्ञान कांड का वर्णन है तथा अंतिम उपनिषद् में ब्रह्मविद्या का भंडार है। प्रत्येक ग्रन्थ का अपना विशेष स्थान है। ब्रह्मचर्य आश्रम में वेद का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है, तो वहीं संन्यास आश्रम में उपनिषद् के ब्रह्मविद्या का ज्ञान होना आवश्यक है। इस प्रकार मनुष्य की संचालित जीवन व्यवस्था में संस्कृत साहित्य के वैदिक वाङ्ग्मय का महत्वपूर्ण स्थान है।

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