आश्रम व्यवस्था

प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान रही है। मनुष्य अपने जीवन में कर्म व श्रम के द्वारा ही उन्नति करता आया है। भारतीय समाज में कर्म को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है।  रामायण, महाभारत, पौराणिक कथा आदि में कर्म से सम्बन्धित विषय प्राप्त होते हैं। जिनसे यह पता चलता है कि भारतीय संस्कृति में धर्म, कर्म तथा श्रम सर्वोपरि हैंं।

भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध ग्रन्थ भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा कहा गया है- कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
अर्थात् मनुष्य का अधिकार केवल कर्म पर है, कर्म के फल पर नहीं। इस कारण मनुष्य को केवल कर्म करते रहना चाहिए, कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। सभी मनुष्यों को निष्काम कर्म करना चाहिए। निष्काम कर्म का अर्थ है कि केवल कर्म अर्थात् अपना कर्त्तव्य करना चाहिए ना कि कर्म के फल की चिंता करनी चाहिए, यदि जीव उचित तथा सभी के हित का कार्य करे तो अवश्य ही उचित कर्म का फल लाभकारी ही होगा परन्तु यदि मनुष्य कर्म करने से पहले ही कर्म के फल की चिंता करने लगे तो वह सम्यक रूप से कर्म नहीं कर पाएगा। इस कारण मनुष्य को कर्म के फल की चिंता का त्याग करके निष्काम कर्म ही करना चाहिए। 

अतः भारतीय शास्रों में सभी परिस्थितियों में मनुष्य के लिए कर्म का विधान किया गया है। इसी कर्म सिद्धांत को स्वीकार करते हुए धर्मशास्रों में आश्रम व्यवस्था का विधान विद्वानों द्वारा किया गया। 

आश्रम- आश्रम शब्द 'आ' उपसर्ग पूर्वक् 'श्रम्' धातु से बना है। जिसका अर्थ है- विशिष्ट परिश्रम करना।
इसकी व्युत्पति है- "आश्रमयन्ति अस्मिन् इति आश्रमः।" अर्थात् जीवन का एक ऐसा स्तर, जिसमें व्यक्ति भरपूर श्रम करता है।

आश्रम व्यवस्था का उद्देश्य-
भारतीय समाज के संगठन, लोक व्यवस्था के कल्याणार्थ व सञ्चालन  के लिए भारतीय विद्वानों ने आश्रम व्यवस्था को स्वीकार किया। भारतीय विद्वानों ने मानव जीवन के चार प्रयोजन (पुरुषार्थ) धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष का निर्धारण किया। मनुष्य को इन चारों प्रयोजन की सिद्धि के लिए विशिष्ट श्रम की आवश्यकता थी। मनुष्य श्रम पूर्वक जीवन व्यतीत करे और समस्त कर्त्तव्यों का पालन करे, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आश्रम व्यवस्था का निर्माण किया गया।

महाभारत में आश्रम व्यवस्था को चार डण्डों वाली ऐसी सीढ़ी के रूप में बताया गया है, जो व्यक्ति को क्रमशः ब्रह्म(परमात्मा) के ओर ले जाती है। आश्रम व्यवस्था में मनुष्य चारों पुरुषार्थों(धर्म,अर्थ,काम तथा मोक्ष) की सिद्धि के लिए विशिष्ट श्रम, साधना एवं तपस्या करता है और एक अवस्था(पुरुषार्थ) को प्राप्त कर लेने या पूर्ण करने के बाद दूसरी अवस्था की पूर्ति के लिए आगे की ओर बढ़ जाता है।

ये चारों आश्रम हैं- (1)ब्रह्मचर्याश्रम, (2)गृहस्थाश्रम, (3)वानप्रस्थाश्रम तथा (4)संन्यासाश्रम।
आश्रम व्यवस्था

प्राचीन काल में मनुष्य के जीवन आयु की कल्पना सतवर्ष (सौ साल) की गई थी। इस कारण प्रत्येक आश्रम का काल पच्चीस (25) वर्ष माना गया। इस प्रकार मनुष्य ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन प्रथम पच्चीस वर्ष की आयु तक, गृहस्थ आश्रम में पचास वर्ष की आयु तक, वानप्रस्थ आश्रम में पचहत्तर वर्ष की आयु तक तथा अंतिम संन्यास आश्रम में प्रवेश करने के बाद लगभग सौ वर्ष की आयु तक मोक्ष की प्राप्ति करता था।

(1)ब्रह्मचर्याश्रम- यह जीवन का प्रथम आश्रम है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है इन्द्रिय संयम (इन्द्रियों पर नियंत्रण) तथा वेदाध्ययन के लिए व्रत का पालन करना अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा सामवेद इन चारों वेदों के अध्ययन के लिए समस्त कर्त्तव्यों का पालन करना।
ब्रह्मचर्याश्रम का मुख्य लक्ष्य शिक्षा प्राप्त करना है। "ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति।" अर्थात् ब्रह्मविद्या ही ब्रह्मचारियों के लिए मुख्य विद्या थी।
यह आश्रम उपनयन संस्कार के बाद आरम्भ होता है। ब्रह्मचर्याश्रम में बालक को नैतिक गुणों की शिक्षा, कर्त्तव्यपालन, अनुशासन, स्वाध्याय, दया-भाव, धैर्य, आत्म संयम, इन्द्रिय नियंत्रण, परित्याग, सहनशीलता आदि का विकास किया जाता था। प्राचीन काल में ब्रह्मचर्याश्रम का पालन गुरुकुल या ऋषि आश्रम में किया जाता था। परन्तु वर्तमान काल में गुरुकुल व्यवस्था बहुत कम रह गई है तथा विद्यालय, महाविद्यालय आदि द्वारा शिक्षा प्राप्त की जाती है।

(2)गृहस्थाश्रम- यह मनुष्य जीवन का दूसरा स्तर है। इस आश्रम में विवाह संस्कार के बाद प्रवेश किया जाता है।

गौतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि-
साविधिपूर्वकम् स्नात्वा भार्यामधिगम्य यथोक्तान्गृहस्थधर्मान्प्रयुञ्जान् इमानि व्रतान्यनुरक्षेत्। अर्थात इस आश्रम में पति-पत्नी एक साथ रहकर धर्मानुसार व्यवहार करते थे।
गृहस्थाश्रम का मुख्य लक्ष्य- ऋणत्रय(ऋषिऋण, देवऋण व पितृऋण) से मुक्त होना तथा पञ्चमहायज्ञ(ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ तथा अतिथियज्ञ) की पूर्ति करना है।

ऋणत्रय है-
(क)ऋषिऋण- नित्य स्वाध्याय के द्वारा चिंतन, मनन करते हुए ज्ञानावर्धन करना है। इससे मनुष्य गृहस्थ आश्रम में गुरु या ऋषि ऋण से मुक्त हो जाता है। 

(ख)देवऋण- मानव प्रतिदिन पूजा, अर्चना के द्वारा देव ऋण से मुक्त हो जाते हैं।

(ग)पितृऋण- गृहस्थाश्रम का पालन करते हुए मनुष्य विवाहित कन्या से संतानोत्पत्ति कर संतान के प्रति शिक्षा, पालन-पोषण, विवाह आदि कर्त्तव्यों को पूर्ण करके गृहस्थ व्यक्ति पितृऋण से भी मुक्त हो जाता है।
गृहस्थ आश्रम का लक्ष्य- दान देना, अतिथि सत्कार, दु:खी एवं रोगी व्यक्ति की सहायता करना, स्वाध्याय करना, पूजा-आराधना करना, संतान उत्पत्ति करना तथा संतान के प्रति कर्तव्य का पालन करना गृहस्थ आश्रम का परम लक्ष्य है। 


(3)वानप्रस्थ आश्रम- वानप्रस्थ का अर्थ है वन में प्रवेश करना। "वनमेव प्रस्थो, वनस्य वा प्रस्थ प्रदेशः।" अर्थात पूर्व परिस्थितियों का त्याग करके वन की ओर जाना वानप्रस्थ कहलाता था। 
वन के लिये प्रस्थान करने का विधान होने के कारण इसका नाम वानप्रस्थ रखा गया है। यह आश्रम मनुष्य जीवन का तीसरा स्तर है।
 वानप्रस्थ आश्रम में मनुष्य अपनी सभी जिम्मेदारियाँ पुत्रों को सौंपकर यज्ञ तथा संध्या, उपासना आदि नित्य कर्म करता हुआ, शाकाहारी, कन्दमूल फलों का आहार करते हुए, वन में वास करता है। वानप्रस्थी को भूमि शयन,कंद-मूल फल आदि का भोजन, अग्निहोत्र, तीन बार स्नान, पवित्रता, संयम, क्षमाशील, हितैषी तथा वल्कल वस्त्र का धारण करना चाहिए। वानप्रस्थी सभी सांसारिक बन्धनों को त्याग करके आत्मकल्याण की कामना से वन की ओर चल देता है। 


(4)सन्यासाश्रम- यह अंतिम तथा चौथा आश्रम है। सन्यास का अर्थ है- पूर्ण त्याग। वेद के अतिरिक्त अन्य सभी कर्मों का त्याग करना ही संन्यास आश्रम का प्रमुख लक्ष्य है।
तीनों आश्रम(ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ) के पालन करने के बाद मनुष्य संन्यास आश्रम में प्रवेश करता है।

मनुस्मृति में कहा गया है कि-

प्राजापत्यं निरूप्योष्टिं सर्ववेद सदक्षिणाम्।
आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात्।।
अर्थात समस्त धन जो वानप्रस्थाश्रम में दक्षिणा में दे दिया था, ऐसे प्राजापत्य यज्ञ को सम्पन्न करके तथा यज्ञाग्नियों को मन में स्थापित करके वह ब्राह्मण चौथे आश्रम संन्यास के लिए निकल पड़े।
इस आश्रम में साधक सभी प्रकार के मानसिक, शारीरिक आदि भावों का त्याग करके परमात्मा की प्राप्ति के लिए श्रम अथवा तप एवं आध्यात्मिक कर्म करता है।
सन्यासी के चार ही कर्तव्य है- ध्यान, पवित्रता, भिक्षा तथा एकांकी रहना। सन्यासी को मुनि के साधनों का प्रयोग करते हुए जगत के सुधार का भी यत्न करना चाहिए। समस्त भौतिक पदार्थों का त्याग करके केवल परमात्मा का चिंतन एवं मनन करना चाहिए। 


इस प्रकार ब्रह्मचर्याश्रम में अध्ययनात्मक श्रम, गृहस्थाश्रम में क्रियात्मक व रचनात्मक श्रम की आवश्यकता होती है, वानप्रस्थाश्रम में तपस्यात्मक श्रम किया जाता है और संन्यासाश्रम में साधन रुपी श्रम किया जाता है। इस प्रकार मनुष्य जीवन में चारों आश्रमों का समान महत्त्व है। संचालित जीवन के लिए आश्रम व्यवस्था का पालन करना जरूरी है। पहले आश्रम की प्राप्ति के बाद ही मनुष्य दूसरे आश्रम में प्रवेश करता है। अंतिम सन्यास आश्रम में मनुष्य परमात्मा(मोक्ष) की प्राप्ति करता है। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष पुरुषार्थ की पूर्ति के लिए आश्रम व्यवस्था का पालन करना अति आवश्यक है।

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