आत्मा का स्वरूप

आत्मा- आत्मा, परमात्मा से अपृथक उसी के रूप जैसी एक विभूति या तत्व है जो कि चेतन स्वरूप है।
गीता में इसे परा (अध्यात्म) प्रकृति कहा गया है जो कि सभी चेतन प्राणियों के भीतर जीवरूप में स्थित है।



































अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो  ययेदं धार्यते जगत् ।।  (गीता अध्याय-7, श्लोक-5)

आत्मा के बिना मन और बुद्धि निष्क्रिय होते हैं। आत्मा के द्वारा चेतनता के धारण होने पर ही मन और बुद्धि सहित शरीर के प्रत्येक अंग में सक्रियता आ जाती है और उसके फलस्वरूप सम्पूर्ण शरीर, मन व बुद्धि सहित आत्मा के लिए कार्य करना शुरू कर देता है।



जिस प्रकार मोटरगाड़ी में लगे हुये सभी उपकरणों का उद्देश्य मोटरगाड़ी के इंजिन की ऊर्जा को गति में परिवर्तित कर सवारी को ढोना तथा उन्हें गन्तव्य तक पहुँचाना होता है। उसी प्रकार मन, बुद्धि, देहेन्द्रियादि सभी अंगो का उद्देश्य आत्मा की ऊर्जा को कार्य में परिवर्तित कर मनुष्य को अपने लक्ष्य अथवा परमात्मा के पास पहुँचाना होता है।



अतएव जब मन के अन्तर्द्वन्दों से प्रभावित होकर अज्ञान के कारण बुद्धि अधर्म या अकर्त्तव्य में प्रवृत्त हो जाती है, तब उसका परिणाम आत्मा को ही भोगना पड़ता है क्योंकि अनुभव करने वाला और गन्तव्य तक पहुँचाने वाला आत्मा ही है।

जिस व्यक्ति के अंदर आत्मा के स्तर पर विश्वास उत्पन्न हो जाता है, वह व्यक्ति कभी भी, किसी भी कार्य में असफल नहीं होता है। वह जैसा सोचता है उसके कार्य उसी प्रकार सिद्ध होने लगते हैं।'' ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थो अनुधावति ''  (उत्तररामचरितम्) । 


समान्य रूप से लोग आत्मा के प्रबन्धन से संबंधित जप - तप, स्तुति, प्रार्थना, उपासना आदि क्रियाकलापों को साधु-महात्माओं का आध्यात्मिक कार्य समझकर इन उपायों को अपने आत्मप्रबंधन के लिए आवश्यक नहीं समझते। उदाहरण के लिए-एक विद्यार्थी एकाग्रता पूर्वक पढ़ना तो चाहता है लेकिन कुछ समय का जप-तप, पूजा, पाठ आदि करना उसे व्यर्थ या समय की हानि मालूम पड़ती है। यही उसकी अज्ञानता है क्योंकि जिस प्रकार केवल मोटरगाड़ी के उपकरणों पर ही ध्यान देते रहने से उसके इन्जिन की सर्विस आदि की उपेक्षा होने पर ऊर्जा के अभाव में उपकरण निष्क्रिय हो जाते हैं। उसी प्रकार आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक क्रियाओं की ओर ध्यान न देने से मन और बुद्धि भी सही दिशा में गति नहीं कर पाते हैं।


कारण, आत्मप्रबंधन से जुड़े हुए समस्त तत्त्वों का अन्तः सम्बन्ध एक-दूसरे को प्रभावित करता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रद्धा, तप, आहार, दान, यज्ञ, त्याग, ज्ञान, बुद्धि, धृति, सुख, कर्त्ता, कर्म आदि से सम्बन्धित अनेक लौकिक क्रियाकलापों के सात्विक, राजसिक और तामसिक तीनो स्वरूपों का परिचय कराते हुए सात्विक क्रियाओं को करने का आदेश दिया है। क्योंकि सात्विक क्रियाओं के निरन्तर करते रहने से मनुष्य के अन्दर हमेशा सत्त्वगुण विद्यमान रहता है। इस प्रकार सत्व गुण को आत्मप्रबन्धन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है। इन क्रियाओं से आत्मा को सुख और प्रसन्नता का अनुभव होता है तथा मन और बुद्धि को अपने निर्विघ्न (बिना बाधाओं के) कार्य पूर्ण करने में सहयोग प्राप्त होता है।


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। 
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।                                  (गीता अध्याय-2, श्लोक-23) 

इस श्लोक में कहा गया है कि आत्मा को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है, न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। अतः यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के अजर-अमर और शाश्वत होने की बात की है। 


भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि आत्मा अविनाशी इसलिए है क्योंकि यह किसी भी वस्तु या पदार्थ के द्वारा  किसी भी रूप में नष्ट नहीं किया जा सकता है। शास्त्रों में चार युग बताये गए हैं, जब एक युग की समाप्ति होगी, तो दूसरे युग का जन्म होगा। परन्तु उसमें विचरण करने वाली आत्माएँ कभी नष्ट नहीं होती हैं। 


आत्मा की न तो आकृति है, न वह स्थूल या दृश्य है, बल्कि वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। अतः उसे शस्त्र, हवा, पानी एवं आग नष्ट नहीं कर सकते हैं। तात्पर्य यह है कि पदार्थों की आकृति अणु, द्रव्यणुक एवं त्रस्त्रेणु आदि से बनकर अवयवों वाली होती है। परन्तु आत्मा अवयवों तथा स्पर्श से भी रहित है, अतः प्रत्यक्ष रूप से द्रष्टव्य भी नहीं है। जो वस्तु या पदार्थ द्रष्टव्य (देखने योग्य) नहीं है उसे न तो शस्त्र काटकर नष्ट कर सकते हैं, न आग जलाकर भस्म कर सकती है, न जल भिगोकर गीला कर सकता है और न ही वायु सुखाकर समाप्त कर सकती है। अतः आत्मा न मरती है और न ही किसी को मारती है। केवल शरीर का ही जन्म एवं मरण होता है।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।                       (गीता अध्याय-2,श्लोक -22)

अर्थात् मनुष्य जिस प्रकार पुराने ( फटे हुए ) वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीरों  को त्याग कर अन्य नए शरीरों को धारण कर लेती है।


अतः श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि मनुष्य अपने शरीर में समय - समय पर पहने हुए वस्त्रों को उतार कर नूतन (नए) वस्त्र धारण करता है। इसी प्रकार मनुष्य के समान आत्मा भी किसी शरीर को एक जन्म के लिए धारण कर, किए गए कर्मों को भोगने तथा उस (वर्तमान) शरीर का त्यागकर नए शरीर को धारण करता है।


आत्मा का स्वरूप और उसके ज्ञान की महिमा में चेतन आत्मा को इस प्रकार अमृतस्वरूप, नित्य, इन्द्रियातीत, सनातन, अक्षर, जियतात्मा एवं असंग समझा जाता है, जिससे वह कभी मत्यु के बन्धन में नहीं पड़ता है। जिसकी दृष्टि में आत्मा अपूर्व ( अनादि), अकृत (अजन्मा), नित्य, अचल, अग्राह्य (इन्द्रियातीत), निश्चल एवं अमृतस्वरूप हो जाता है, जो चित्त को शुद्ध करने वाले सम्पूर्ण संस्कारों का संपादन करके मन को आत्मा के ध्यान में लगा देता है, वही इस कल्याणमय ब्रह्मा (आत्म तत्व) को प्राप्त करता है। सम्पूर्ण अन्तः करण (मन) के स्वच्छ तथा शुद्ध हो जाने पर साधक को प्रसन्नता प्राप्त होती है।

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